SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नींव का पत्थर ___अम्मा के पास प्रतिदिन प्रवचन में पहुँचने का साधन तो नहीं है; फिर भी वह घर पर ही कुछ न कुछ स्वाध्याय करके ही भोजन करती है। समय-समय पर निष्पक्षभाव से साधु-संतों और सभी विद्वानों के प्रवचन भी सुनती है, परन्तु अध्यात्म की गहरी पकड़ न होने से स्वाध्याय का फल जो निराकुल सुख-शान्ति है, उससे वह वंचित है। ज्योत्स्ना के पड़ोस में आ जाने से तो मानो उसके भाग्य ही खुल गये। अच्छी पड़ोसिनें भी पुण्य से ही मिलती हैं। अब वह अम्मा ज्योत्स्ना के साथ प्रतिदिन प्रवचन में जाने लगी। यद्यपि वह प्रवचनों को खूब ध्यान से सुनती और जो बात समझ में नहीं आती, उसे तत्काल नोट भी कर लेती और प्रवचन के बाद जैसे भी मौका मिलता समताश्री से समाधान भी करा लेती। ___अम्मा के हित में एक अच्छी बात यह है कि वह किसी व्यक्ति विशेष या पन्थ विशेष की सीमाओं में बंधी नहीं है। किसे सुने, किसे न सुने ? क्या पढ़े, क्या न पढ़े ? - ऐसे संकुचित विचार उसे पसंद नहीं हैं। उसे वीतरागता की पोषक सभी बातों में आनन्द आता है। अत: वह एक बार तो सबको ही सुनती है, फिर अपने विवेक से हेयोपादेय का निर्णय स्वयं करती है। विकथायें करने का अब उसके पास बिलकुल भी समय नहीं है। वह बार-बार कहती है - “मैंने जितने वर्ष जी लिया, अब उतने महीने भी स्व-पर हित के लिए मिलना मुश्किल हैं। अंजुली के पानी की तरह समय निरन्तर अपनी गति से बीत रहा है। अतः मैं अब किसी भी प्रपंच में नहीं पड़ती।" अच्छी पड़ोसिने भी पुण्य से मिलती हैं और सर्वज्ञता के माध्यम से समझा था, उस विषय में अम्माजी क्रमबद्धपर्याय का और अधिक स्पष्टीकरण कराना चाहती हैं। विषय तो अपने आप में महत्त्वपूर्ण है ही तथा और भी अनेक भाई-बहिन नये आये हैं; अत: आज भी सर्वज्ञता और क्रमबद्धपर्याय को ही समझाने का प्रयत्न करेंगे। 'सर्वं जानातीति सर्वज्ञः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार सर्वज्ञ शब्द का अर्थ है सबको जानने वाला। “सर्वज्ञ शब्द में जो 'सर्व' शब्द है उसका तात्पर्य त्रिकाल और त्रिलोकवर्ती समस्त द्रव्यों और उनकी समस्त पर्यायों से है। जो त्रिकाल और त्रिलोकवर्ती समस्त द्रव्यों और उनकी समस्त पर्यायों को युगपत प्रत्यक्ष जानता है वह सर्वज्ञ है। ___अमृतचन्द्र आचार्यदेव ने पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में मंगलाचरण करते हुए लिखा है कि - 'वह परम ज्योति (केवलज्ञान) जयवन्त होओ, जिसमें दर्पणतल के समान समस्त पदार्थमालिका प्रतिभासित होती है। जैसे क्षेत्रान्तर में स्थित घटादि पदार्थ दर्पण में प्रतिबिम्बित होते हैं वैसे ही क्षेत्रान्तर में स्थित समस्त पदार्थ केवलज्ञान के विषय होते हैं।' ज्ञान के दो प्रकार हैं - ज्ञानाकार और ज्ञेयाकार । वैसे तो प्रत्येक ज्ञान ज्ञेयाकार परिणमित होता ही है; किन्तु यदि हम उस ज्ञेयाकार की अपेक्षा को गौण कर ज्ञान को मात्र सामान्यरूप से देखें तो वह ज्ञानाकार प्रतीत होता है। ज्ञेयाकाररूप परिणमन की दृष्टि से देखने पर वही ज्ञान ज्ञेयाकार प्रतीत होता है। इससे सिद्ध होता है कि केवलज्ञान का जो प्रत्येक समय में परिणमन है वह तीन लोक और त्रिकालवर्ती समस्त ज्ञेयाकाररूप ही होता है। केवलज्ञान तीन लोक और त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थों को युगपत जानता है। पण्डित दौलतरामजी ने स्तुति में कहा भी है - 'सकल ज्ञेय ज्ञायक तदपि, निजानंद रसलीन' जानना ज्ञान की परिणति है और वह परिणति ज्ञेयाकाररूप होती है, इससे यह भी ज्ञात हो जाता है कि सर्वज्ञ जानता तो सबको है; पर वह पर को तन्मय होकर नहीं जानता। वे पर को जानते हुए भी निजानंद में ही मग्न अगले दिन अपने निश्चित समय पर ठीक ८.३० पर प्रवचन प्रारंभ हुआ। समताश्री ने ॐ नमः सिद्धेभ्य: के साथ कल के विषय को आगे बढ़ाते हुए कहा - "हमने कल जो वस्तुस्वातंत्र्य के विषय को क्रमबद्धपर्याय
SR No.008361
Book TitleNeev ka Patthar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages65
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size233 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy