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________________ नींव का पत्थर निश्चिंत और निर्भार होकर ध्यान और अध्ययन, चिन्तन-मनन कर अर्न्तमुखी हो सकते हैं।" स्वतंत्रकुमार और गणतंत्रकुमार भी इस प्रवचन को ध्यान से सुन रहे थे। उनके मन में अनेक प्रश्न उठे; क्योंकि ऐसा आध्यात्मिक प्रवचन उन्होंने पहली बार ही सुना था। वह ज्ञान-वैराग्य परक प्रवचन सुनकर उनका हृदय हिल गया । वे बहुत ही प्रभावित हुए; परन्तु उनकी समझ में यह नहीं आ रहा था कि न केवल जन-जन की स्वतंत्रता और न केवल मात्र जीवों की स्वतंत्रता, ये तो कण-कण की स्वतंत्रता की बात कह रहीं हैं। यह कैसे संभव है ? स्वतंत्रकुमार सोचता है - “क्या कण-कण अर्थात् पुद्गल का एकएक परमाणु स्वतंत्र है ? मैंने मो अबतक प्रवचनों में ऐसा सुना है कि - 'आत्मा कर्मों के आधीन है, कर्म बहुत बलवान होते हैं, ये जीवों को नाना प्रकार से नाच नचाते हैं। कहा भी है - ‘कबहूँ इतर निगोद, कबहूँ नर्क दिखावे।' तथा यह भी स्तुति में बोलते हैं कि - हे प्रभो! मैंने इनका कुछ भी बिगाड़ नहीं किया, फिर भी इन कर्मों ने बिना कारण बहुविध वैर लिया है। ये कर्म ही तो जीवों को चौरासी लाख योनियों को भटकाते हैं। यद्यपि नरक और निगोद हमें इन चर्म चक्षुओं से दिखाई नहीं देते; परन्तु लट, केंचुआ, चींटी-चीटें, मक्खी-मच्छर, पशु, पक्षी आदि और मगरमच्छ, मछलियाँ आदि असंख्य अनन्त जीवों को तड़फते-छटपटाते, भयभीत हो इधर-उधर भागते-दौड़ते तो हम प्रत्यक्ष देखते ही हैं - ये कर्मों के फल को ही तो भोग रहे हैं, कर्मों के आधीन ही तो हैं; फिर जनजन व कण-कण की स्वतंत्रता कैसे संभव है?" स्वतंत्रकुमार ने निवेदन किया - “इस समय आप मेरी समधिन नहीं, बल्कि गुरु हैं । यह तो मेरा परम सौभाग्य है कि आप जैसी विदुषी से सम्बन्ध जुड़ने का मुझे सुअवसर मिला और जब से आप की बेटी ज्योत्स्ना जैसी बहू के पग मेरे घर में पड़े, तब से घर का वातावरण ही राष्ट्रीय स्वतंत्रता और वस्तुस्वातंत्र्य बदल गया। हमारा तो जीवन ही सफल हो गया। मैंने आपका प्रवचन बहुत ध्यान से सुना है, बहुत आनन्द आया; परन्तु कुछ प्रश्न मेरे मन में उठे हैं; यदि अभी असुविधा न हो तो ..... अन्यथा जब आपको अनुकूलता हो, मैं तभी हाजिर हो जाऊँगा।" ___ समताश्री ने कहा - "स्वतंत्रजी ! ऐसी कोई बात नहीं, आप आये और मेरी बातों को ध्यान से सुना, इसके लिए आपको बहुत-बहुत साधुवाद ! इस काम के लिए कभी कोई असुविधा की बात नहीं है, सदैव सुविधा ही सुविधा है। आप जब पूछना चाहें, पूछे । मैं अपनी योग्यता के अनुसार आपकी शंकाओं का समाधान करने का प्रयास करूँगी। __गणतंत्र और ज्योति भी आये हैं। आप सबका बहुत-बहुत स्वागत है। मैं चाहती थी कि ज्योति को घर-वर धर्म प्रेमी मिलें । मेरी भावना पूरी हुई - यह देखकर मुझे बहुत हर्ष है। एतदर्थ आपको पुनः पुनः साधुवाद!" __स्वतंत्रकुमार ने पुनः पूछा - “जगत में छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा कोई भी काम जब बिना कारण के तो होता ही नहीं, जो भी कार्य होता है, उसका कोई न कोई कारण तो होता ही है। जब यह अकाट्य नियम है तो फिर यह क्यों कहा गया है कि - ‘परमाणु-परमाणु का परिणमन स्वतंत्र हैं, स्व-संचालित हैं, कोई भी किसी कार्य का कर्त्ताधर्ता नहीं है। क्या यह बात परस्पर विरोधी नहीं है?" समताश्री ने बताया - “यद्यपि जगत में छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा - कोई भी काम बिना कारण के नहीं होता। जब भी जो कार्य होता है तो कार्य के पूर्व और कार्य के समय कोई न कोई कारण तो होता ही है - यह बात तो निर्विवाद है; परन्तु यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि - उन कारण-कार्य सम्बन्धों को मिलने-मिलाने की जिम्मेदारी किसी व्यक्ति विशेष की नहीं है। जब कार्य होता है, तब कार्य के अनुकूल सभी कारण स्वतः अपने आप ही मिलते हैं। चाहे वे काम अकृत्रिम हों, प्राकृतिक हों (27)
SR No.008361
Book TitleNeev ka Patthar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages65
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size233 KB
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