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________________ नींव का पत्थर जो पुरुष पर के जीवन-मरण, सुख-दुःख का कर्ता दूसरों को मानते हैं, वे अहंकार रस से भरे हैं कर्मेन्द्रिय को करने के इच्छुक होने से नियम से मिथ्यादृष्टि हैं और अपने आत्मा का घात करने वाले होने से हिंसक है।” आगम में जो स्व और अन्य प्राणियों की अहिंसा की बात कही गई है, वह केवल आत्मरक्षा के लिए है, पर के लिए नहीं। आज से एक हजार वर्ष पूर्व आचार्य अमृतचन्द्र ने हिंसा-अहिंसा के स्वरूप का जिस सूक्ष्मता से कथन किया वैसा अन्यत्र कहीं देखने में नहीं आया। वस्तु स्वातंत्र्य के संदर्भ में उनके कतिपय अत्यन्त उपयोगी तथ्य प्रस्तुत हैं। हिंसा-अहिंसा के स्वरूप का उद्घाटन करते हुए वे कहते हैं कि - "वस्तुतः तो हिंसा-अहिंसा का सम्बन्ध अपने आत्मा से ही है, परजीवों की हिंसा तो कोई कर ही नहीं सकता। मूल कथन इसप्रकार है - अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्य हिंसेति । तेषामेवोत्पत्ति हिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ।। आत्मा में रागादि भावों की उत्पत्ति ही हिंसा है और रागादि भावों की उत्पत्ति न होना ही अहिंसा है।"२ ____ पण्डित टोडरमलजी ने भी लिखा है कि हिंसा में प्रमाद परिणति मूल है और विषय सेवन में अभिलाषा मूल है। इसे ही यदि द्रव्य हिंसा व भाव हिंसा के रूप में कहें तो इस प्रकार कह सकते हैं - रागादि भावों के होने पर आत्मा के उपयोग की शुद्धता का घात होना भावहिंसा है और अपने रागादिभाव निमित्त है जिसमें - ऐसे अपने पराये द्रव्य प्राणों का घात होना द्रव्य हिंसा है। यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि पराये प्राणों के घात में द्रव्यहिंसा का पापबंध किसको हुआ। हमारे राग-द्वेष से स्वयं की भावहिंसा तो १. समयसारकलश १६८, १६९ २. पुरुषार्थ सिद्धयुपाय श्लोक ४४ वस्तु स्वातंत्र्य और अहिंसा होती ही है, पर जीवों के घातों में भी हमारे राग-द्वेष ही निमित्त बनते हैं, अतः व्यवहार में निमित्त पर आरोप होने से द्रव्य हिंसा भी हमारी ही हुई। क्योंकि उस द्रव्य हिंसा के फल का भागीदार भी हमारा राग-द्वेष ही है। अन्य जीव का मरण तो उसके आयुकर्म के अनुसार होना ही था सो हुआ। फिर भी निश्चय से हमारे रागादि भावहिंसा एवं उपचार से उस मृत्यु को द्रव्य हिंसा कहने का व्यवहार है। परन्तु पर के जीवन-मरण से किसी को कोई पुण्य-पाप नहीं होता। पुण्य-पाप तो हमारे प्रमाद के कारण ही होता है। वस्तुतः दोनों प्रकार की हिंसा एक व्यक्ति में ही हुई, क्योंकि अन्य के प्राणों के व्यपरोपण से वही निमित्त बना है न! कहा भी है - "सूक्ष्मापि न खलु हिंसा, परवस्तु निबन्ध ना भवति पुंसः हिंसायतन निवृत्ति परिणाम विशुद्धये तदपि कार्याः ।। यद्यपि परवस्तु के कारण सूक्ष्म हिंसा भी नहीं होती, तथापि अपने परिणामों की विशुद्धि के लिए हिंसा के आयतनों से तो बचना ही चाहिए।" इसप्रकार यद्यपि वस्तुस्वातंत्र्य के सिद्धान्त की स्वीकृति में भूमिकानुसार अहिंसा के उपदेश में कोई बाधा नहीं आती; किन्तु ध्यान रहे, मारने के भाव की भाँति बचाने के भाव भी शुभभाव होने से हिंसा का ही दूसरा प्रकार है। अत: यह भी बंध का ही कारण है। और मैं पर जीव की रक्षा कर सकता हूँ या मार सकता हूँ - यह मान्यता तो मिथ्यात्व है, इस बात को अवश्य ध्यान में रखना योग्य है। विराग ने कहा - "वस्तु स्वातंत्र्य के संदर्भ में अहिंसा” विषय तो स्पष्ट हो गया; परन्तु अभी जो निमित्त की बात आई है, उस परद्रव्य रूप निमित्त का वस्तु स्वातंत्र्य में क्या स्थान है? __ समता श्री ने आश्वस्त किया - 'आज का समय पूरा हुआ, कल वस्तुस्वातंत्र्य को निमित्त-उपादान के आलोक में समझायेंगे।' १. पुरुषार्थसिद्धयुपाय श्लोक ४९ (25)
SR No.008361
Book TitleNeev ka Patthar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages65
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size233 KB
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