SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 25
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४८ जोगसारु (योगसार) प्रश्न -९. क्या योग भी उत्तम और जघन्य दो प्रकार का होता है? उत्तर - हाँ, योग भी उत्तम और जघन्य दो प्रकार का होता है। पूर्ण योग को उत्तम योग कहते हैं और अल्प योग को जघन्य योग कहते हैं। केवलज्ञानी जीवों के उत्तम योग होता है और अल्पज्ञानी जीवों के जघन्य योग होता है। आत्मस्वरूप में पूर्ण लीनता को उत्तम योग कहते हैं और आंशिक लीनता को जघन्य योग कहते हैं। प्रश्न-१०. क्या उत्तम और जघन्य की तरह और भी कोई भेद योग के होते हैं? उत्तर हाँ, योग के भेद बहुत प्रकार से किये जा सकते हैं। पूर्ण वीतराग आत्मानुभूति की अपेक्षा से योग एक ही प्रकार का है। उत्तम और जघन्य के रूप में योग के दो भेद होते हैं। उत्तम, मध्यम और जघन्य - इसप्रकार योग के ३ भेद भी किये जा सकते हैं। यदि और आगे बढ़े तो कह सकते हैं कि योग के शब्द की अपेक्षा संख्यात, अर्थ की अपेक्षा असंख्यात और भाव की अपेक्षा अनन्त भेद होते हैं। प्रश्न-११. 'योग' की परिभाषा क्या है? उत्तर - जहाँ सर्व वाह्याभ्यन्तर विकल्पों का त्याग होकर केवल एक शुद्ध चैतन्य मात्र में स्थिति होती है वही योग है। योग, ध्यान, समाधि, साम्य, स्वास्थ्य, चित्तनिरोध और शुद्धोपयोग - ये सब पर्यायवाची हैं। (जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ४/४१४) प्रश्न-१२. 'योगसार' के मंगलाचरण में किसको नमस्कार किया गया है? उत्तर - योगसार' के मंगलाचरण में सर्वप्रथम समस्त कर्मकलंक से रहित सिद्ध परमात्मा को नमस्कार किया गया है। उसके बाद चार घातिया कर्मों से रहित एवं अनन्त चतुष्टय से सहित अरिहन्त परमात्मा को भी विनयपूर्वक नमस्कार किया गया है। प्रश्न -१३. 'योगसार' केमंगलाचरण का पहला दोहा हिन्दी-अर्थसहित लिखिए? उत्तर - "णिम्मल-झाण-परिट्ठिया कम्म-कलंक डहेवि । अप्पा लद्धउ जेण परु ते परमप्प णवेवि ।।" जोगसारु (योगसार) जिसने निर्मल ध्यान में पूर्णतः स्थित होकर कर्मरूपी कलंक को जला दिया है और अपने आत्मा को उपलब्ध कर लिया है, उस परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ। प्रश्न-१४, चार घातिया कर्म कौन-से हैं और अनन्त चतुष्टय क्या है? उत्तर - चार घातिया कर्मों के अभाव से आत्मा में अनन्त चतुष्टय प्रकट होते हैं, जो इसप्रकार हैं :घातिया कर्म अनन्त चतुष्टय ज्ञानावरण अनन्त ज्ञान दर्शनावरण अनन्त दर्शन मोहनीय अनन्त सुख अन्तराय अनन्त वीर्य प्रश्न-१५. 'योगसार' के दोहों की रचना किनके लिए की गई है? उत्तर - योगसार' के दोहों की रचना उन भव्यजीवों के लिए की गई है जो संसार से भयभीत हैं और मोक्ष के लिए लालायित हैं। तथा आत्मसंबोधन के लिए भी इनकी रचना की गई है। (दोहा ३ व १०८) प्रश्न-१६. संसार से भयभीत होने का अर्थ क्या है? उत्तर - (क) 'संसार' का अर्थ है -आत्मा के मोह-राग-द्वेष रूप भाव । अतः जो जीव अपने मोह-राग-द्वेषरूप भावों से डरते हैं, वस्तुतः वे ही संसार से भयभीत हैं। (ख) मोह-राग-द्वेष रूप भावों का फल चतुर्गति में परिभ्रमण है, अतः चतुर्गति-परिभ्रमण को भी 'संसार' कहते हैं। जो जीव चतुर्गति-परिभ्रमण से डरते हैं वे संसार से भयभीत हैं। (ग) इनके अतिरिक्त विश्व की किसी भी वस्तु का नाम 'संसार' नहीं है। प्रश्न-१७. मोक्ष के लिए लालायित होने का अर्थ क्या है? उत्तर - मोक्ष का अर्थ है - पूर्ण स्वाधीनता अथवा पूर्ण निराकुलता। जिन जीवों के हृदय में पूर्ण स्वाधीनता अथवा पूर्ण निराकुलता की तीव्र अभिलाषा है, वे ही वस्तुतः मोक्ष के लिए लालायित
SR No.008355
Book TitleJogsaru Yogsar
Original Sutra AuthorYogindudev
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages33
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size129 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy