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________________ चले अयोध्या किन्तु नगर में, चक्र प्रवेश न कर पाया। ज्ञात हुआ लघु भ्रात बाहुबलि सेवा में न अभी आया ।। भरत चक्रवर्ती ने चाहा, बाहुबलि आधीन रहे। ठुकराया आदेश भरत का, तुम स्वतंत्र स्वाधीन रहे ।। भीषण युद्ध छिड़ा दोनों भाई के मन संताप हुए। दृष्टि-मल्ल-जल युद्ध भरत से करके विजयी आप हुए ।। क्रोधित होकर भरत चक्रवर्ती, ने चक्र चलाया है। तीन प्रदक्षिणा देकर कर में, चक्र आपके आया है।। विजय चक्रवर्ती पर पाकर, उर वैराग्य जगा तत्क्षण । राज्यपाट तज ऋषभदेव के, समवशरण को किया गमन ।। धिक्-धिक् यह संसार और, इसकी असारता को धिक्कार । तृष्णा की अनन्त ज्वाला में, जलता आया है संसार ।। जग की नश्वरता का तुमने, किया चिंतवन बारम्बार । देह भोग संसार आदि से, हुई विरक्ति पूर्ण साकार ।। आदिनाथ प्रभु से दीक्षा ले, व्रत संयम को किया ग्रहण । चले तपस्या करने वन में, रत्नत्रय को कर धारण ।। एक वर्ष तक किया कठिन तप, कायोत्सर्ग मौन पावन । किन्तु शल्य थी एक हृदय में, भरत-भूमि पर है आसन ।। केवलज्ञान नहीं हो पाया, एक शल्य ही के कारण । परिषह शीत ग्रीष्म वर्षादिक, जय करके भी अटका मन ।। भरत चक्रवर्ती ने आकर, श्री चरणों में किया नमन । कहा कि वसुधा नहीं किसी की, मान त्याग दो हे भगवन् ।। तत्क्षण शल्य विलीन हुई, तुम शुक्ल ध्यान में लीन हुए। फिर अन्तर्मुहूर्त में स्वामी, मोह क्षीण स्वाधीन हुए ।। चार घातिया कर्म नष्ट कर, आप हुए केवलज्ञानी। जय जयकार विश्व में गूंजा, सारी जगती मुसकानी ।। 00000000000 जिनेन्द्र अर्चना झलका लोकालोक ज्ञान में, सर्व द्रव्य गुण पर्यायें । एक समय में भूत भविष्यत्, वर्तमान सब दर्शायें ।। फिर अघातिया कर्म विनाशे, सिद्ध लोक में गमन किया। अष्टापद से मुक्ति हुई, तीनों लोकों ने नमन किया ।। महा मोक्ष फल पाया तुमने, ले स्वभाव का अवलंबन । हे भगवान बाहुबलि स्वामी, कोटि-कोटि शत-शत वंदन ।। आज आपका दर्शन करने, चरण-शरण में आया हूँ। शुद्ध स्वभाव प्राप्त हो मुझको, यही भाव भर लाया हूँ ।। भाव शुभाशुभ भव निर्माता, शुद्ध भाव का दो प्रभु दान । निज परिणति में रमण करूँ प्रभु, हो जाऊँ मैं आप समान ।। समकित दीप जले अन्तर में, तो अनादि मिथ्यात्व गले । राग-द्वेष परिणति हट जाये, पुण्य पाप सन्ताप टले ।। त्रैकालिक ज्ञायक स्वभाव का, आश्रय लेकर बढ़ जाऊँ । शुद्धात्मानुभूति के द्वारा, मुक्ति शिखर पर चढ़ जाऊँ ।। मोक्ष-लक्ष्मी को पाकर भी, निजानन्द रस लीन रहूँ। सादि अनन्त सिद्ध पद पाऊँ, सदा सुखी स्वाधीन रहूँ ।। आज आपका रूप निरख कर, निज स्वरूप का भान हुआ। तुम-सम बने भविष्यत् मेरा, यह दृढ़ निश्चय ज्ञान हुआ।। हर्ष विभोर भक्ति से पुलकित, होकर की है यह पूजन । प्रभु पूजन का सम्यक् फल हो, कटें हमारे भव बंधन ।। चक्रवर्ति इन्द्रादिक पद की नहीं कामना है स्वामी। शुद्ध बुद्ध चैतन्य परम पद पायें हे! अन्तर्यामी ।। ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलिस्वामिने अनयंपदप्राप्तये जयमालापूर्णाय निर्वपामीति स्वाहा। घर-घर मंगल छाये जग में वस्तु स्वभाव धर्म जानें । वीतराग विज्ञान ज्ञान से, शुद्धातम को पहिचानें ।। (पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् ) जिनेन्द्र अर्चना/000000 100000000000१८७ १८६० 94
SR No.008354
Book TitleJinendra Archana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bansal
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size552 KB
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