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________________ तुम काम विनाशक देव, ध्याऊँ फूलनसौं । लहुँ शील-लच्छमी एव, छूटों सूलनसौं ।। नन्दीश्वर-श्रीजिन-धाम, बावन पुंज करों। वसु दिन प्रतिमा अभिराम, आनंद-भाव धरों।। ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वरद्वीपे द्विपंचाशज्जिनालयस्थजिनप्रतिमाभ्यः कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। नेवज इन्द्रिय-बलकार, सो तुमने चूरा । चरु तुम ढिंग सोहैं सार, अचरज है पूरा ।।नन्दी. ।। ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वरद्वीपे द्विपंचाशज्जिनालयस्थजिनप्रतिमाभ्यः क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। दीपक की ज्योति-प्रकाश, तुम तन माहिं लसै। टूटै करमन की राशि, ज्ञान-कणी दरसै ।। नन्दी. ।। ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वरद्वीपे द्विपंचाशज्जिनालयस्थजिनप्रतिमाभ्यो मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। कृष्णागरु-धूप-सुवास, दश-दिशि नारि वरै। अति हरष-भाव परकाश, मानो नृत्य करै ।। नन्दी. ।। ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वरद्वीपे द्विपंचाशज्जिनालयस्थजिनप्रतिमाभ्यो अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। बहुविधि फल ले तिहुँ काल, आनन्द राचत हैं। तुम शिव-फल देहु दयाल, तुहि हम जाचत हैं।। नन्दी. ।। ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वरद्वीपे द्विपंचाशज्जिनालयस्थजिनप्रतिमाभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। यह अरघ कियो निज-हेत, तुमको अरपतु हो। 'द्यानत' कीज्यो शिव-खेत, भूमि समरपतु हों ।। नन्दी. ।। ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वरद्वीपे द्विपंचाशज्जिनालयस्थजिनप्रतिमाभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। १४८८09 000000000 1000 जिनेन्द्र अर्चना जयमाला (दोहा) कार्तिक फाल्गुन साढ़ के, अन्त आठ दिन माहिं। नन्दीश्वर सुर जात हैं, हम पू0 इह ठाहिं ।। (लक्ष्मीधरा) एकसौ त्रेसठ कोडि जोजन महा। लाख चौरासिया एक दिश में लहा।। आठमों द्वीप नन्दीश्वरं भास्वरं । भौन बावन्न प्रतिमा नमों सुखकरं ।। चार दिशि चार अंजनगिरी राजहीं। सहस चौरासिया एक दिश छाजहीं ।। ढोल-सम गोल ऊपर तले सुन्दरं ।।भौन. ।। एक इक चार दिशि चार शुभ बावरी। एक इक लाख जोजन अमल-जल भरी ।। चहुँ दिशि चार वन लाख जोजन वरं ।।भौन. ।। सोल वापीन मधि सोल गिरि दधिमुखं । सहस दश महाजोजन लखत ही सुखं ।। बावरी कौन दो माहिं दो रतिकरं ।।भौन. ।। शैल बत्तीस इक सहस जोजन कहे। चार सोलह मिलैं सर्व बावन लहे ।। एक इक सीस पर एक जिन मन्दिरं ।।भौन. ।। बिम्ब अठ एक सौ रतनमयी सोहही। देव-देवी सरव नयन मन मोहही ।। पाँच सौ धनुष तन पद्म-आसन परं । भौन. ।। लाल नख-मुख नयन श्याम अरु स्वेत हैं। श्याम-रंग भोंह सिर-केश छबि देत हैं ।। वयन बोलत मनों हँसत कालुष हरं ।।भौन. ।। जिनेन्द्र अर्चना १४९ IIIIIIII 75
SR No.008354
Book TitleJinendra Archana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bansal
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size552 KB
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