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________________ इसप्रकार पूजन एवं भक्ति का भाव मुख्यरूप से अशुभराग व तीव्रराग से बचाकर शुभराग व मंदरागरूप निर्मलता प्रदान करता है। यद्यपि यह बात सत्य है कि भक्ति और पूजन का भाव मुख्यरूप से शुभभाव है, तथापि ज्ञानी धर्मात्मा मात्र शुभ की प्राप्ति के लिए पूजन-भक्ति नहीं करता, वह तो जिनेन्द्र की मूर्ति के माध्यम से मूर्तिमान जिनेन्द्र देव को एवं जिनेन्द्र देव के माध्यम से निज परमात्मस्वभाव को जानकर, पहिचान कर, उसी में रम जाना, जम जाना चाहता है। तिलोयपण्णत्ती आदि ग्रन्थों में सम्यक्त्वोत्पत्ति के कारणों में जिनबिम्ब दर्शन को भी एक कारण बताया है। इसप्रकार हम देखते हैं कि जिनपूजा अशुभभाव से बचने के साथ-साथ सम्यक्त्वोत्पत्ति, भेदविज्ञान, आत्मानुभूति एवं वीतरागता की वृद्धि में भी निमित्तभूत है। स्तुतियों और भजनों की निम्न पंक्तियों से यह बात स्पष्ट है - "तुम गुण चिन्तत निज-पर विवेक प्रकट, विघटें आपद अनेक । कला उदोत होत काम जामिनी पलाई ।।निरखत.।।' जिनेन्द्र भगवान का भक्त जिनप्रतिमा के दर्शन के निमित्त से हुई अपूर्व उपलब्धि से भावविभोर होकर कहता है कि - जिनेन्द्र भगवान के मुखचन्द्र के निरखते ही मुझे अपने स्वरूप को समझने की रुचि जागृत हो गई तथा ज्ञानरूपी सूर्य की कला के प्रकट होने से मेरा मोह एवं काम भी पलायन कर गया है।" ज्ञानीजन यद्यपि लौकिक प्रयोजनों की पूर्ति के लिए जिनेन्द्र-भक्ति कदापि नहीं करते, तथापि मूल प्रयोजनों की पूर्ति के साथ-साथ उनके लौकिक प्रयोजनों की पूर्ति भी होती है; क्योंकि शुभभाव और मन्दराग की स्थिति में नहीं चाहते हुए भी जो पुण्य बँधता है, उसके उदयानुसार यथासमय थोड़ीबहुत लौकिक अनुकूलतायें भी प्राप्त होती ही हैं। लौकिक अनुकूलता का अर्थ मात्र अनुकूल भोगसामग्री की प्राप्ति ही नहीं है, अपितु धर्मसाधन और आत्मसाधन के अनुकूल वातावरण की प्राप्ति भी है। इसप्रकार हम देखते हैं कि जिनेन्द्र भगवान का भक्त भोगों का भिखारी तो होता ही नहीं है, वह भगवान से भोगसामग्री की माँग तो करता ही नहीं है; साथ में उसकी भावना मात्र शुभभाव की प्राप्ति की भी नहीं होती, वह तो एकमात्र वीतरागभाव का ही इच्छुक होता है; तथापि उसे पूजन और भक्ति के काल में सहज हुए शुभभावानुसार पुण्य-बंध भी होता है और तदनुसार आत्मकल्याण की निमित्तभूत पारमार्थिक अनुकूलताएँ व अन्य लौकिक अनुकूलताएँ भी प्राप्त होती हैं। पूजा एक त्रिमुखी प्रक्रिया है। पूजा में पूज्य, पूजक एवं पूजा - ये तीन अंग प्रमुख हैं। जिसतरह सफल शिक्षा के लिए सुयोग्य शिक्षक, सजग शिक्षार्थी एवं सार्थक शिक्षा का सु-समायोजन आवश्यक है; उसी तरह पूजा का पूरा फल प्राप्त करने के लिए पूज्य, पूजक एवं पूजा का सुन्दर समायोजन जरूरी है। इसके बिना पूजा की सार्थकता संभव नहीं है। पूज्य सदृश पूर्णता एवं पवित्रता जिनेन्द्र अर्चना/0001 -- जय परम शान्त मुद्रा समेत, भविजन को निज अनुभूति हेत ।' हे भगवन्! आपके निर्मल गुणों के चिन्तन-स्मरण करने से अपने व पराये की पहचान हो जाती है, निज क्या है और पर क्या है - ऐसा भेदज्ञान प्रकट हो जाता है और उससे अनेक आपत्तियों का विनाश हो जाता है। हे प्रभो! आपकी परम शान्त मुद्रा भव्यजीवों को आत्मानुभूति में निमित्त कारण है।" इस सन्दर्भ में निम्नांकित भजन की पंक्तियाँ भी द्रष्टव्य हैं - “निरखत जिनचन्द्र-वदन स्व-पद सुरुचि आई। प्रकटी निज-आन की पिछान ज्ञान-भान की १. पण्डित दौलतराम कृत देवस्तुति २. पण्डित दौलतराम कृत आध्यात्मिक भजन । 20 जिनेन्द्र अर्चना
SR No.008354
Book TitleJinendra Archana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bansal
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size552 KB
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