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________________ ऊँचे सिंहासन बैठि वसु नृप, धरम का भूपति भया । वच झूठ सेती नरक पहुँचा, सुरग में नारद गया ।। ॐ ह्रीं श्री उत्तमसत्यधर्मागाय अयं निर्वपामीति स्वाहा। काय छहों प्रतिपाल, पंचेन्द्रिय मन वश करो। संजम-रतन सँभाल, विषय-चोर बहु फिरत हैं।। उत्तम संजम गहु मन मेरे, भव-भव के भाजै अघ तेरे । सुरग-नरक पशुगति में नाहीं, आलस-हरन करन सुख ठाँ हीं।। ठाहीं पृथीवी जल आग मारुत, रूख त्रस करुना धरो। सपरसन रसना घ्रान नैना, कान मन सब वश करो ।। जिस बिना नहिं जिनराज सीझे, तू रुल्यो जग-कीच में। इक घरी मत विसरो करो नित, आयु जम-मुख बीच में ।। ॐ ह्रीं श्री उत्तमसंयमधर्माङ्गाय अयं निर्वपामीति स्वाहा। तप चाहैं सुरराय, करम-शिखर को वज्र है। द्वादशविधि सुखदाय, क्यों न करै निज सकतिसम ।। उत्तम तप सब माहिं बखाना, करम-शैल को वज्र-समाना। बस्यो अनादि निगोद मँझारा, भू विकलत्रय पशु तन धारा ।। धारा मनुष तन महादुर्लभ, सुकुल आयु निरोगता । श्रीजैनवानी तत्त्वज्ञानी, भई विषय-पयोगता ।। अति महा दुरलभ त्याग विषय-कषाय जो तप आदरें । नर-भव अनूपम कनक घर पर, मणिमयी कलसा धरै ।। ॐ ह्रीं श्री उत्तमतपोधर्मागाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। दान चार परकार, चार संघ को दीजिए। धन बिजुली उनहार, नर-भव लाहो लीजिए ।। उत्तम त्याग कह्यो जग सारा, औषध शास्त्र अभय आहारा। निहचै राग-द्वेष निरवारै, ज्ञाता दोनों दान सँभारै ।। दोनों सँभारै कूप-जल सम, दरब घर में परिनया । निज हाथ दीजे साथ लीजे, खाय खोया बह गया ।। १३०८1000000000 (जिनेन्द्र अर्चना धनि साध शास्त्र अभय दिवैया, त्याग राग विरोध को। बिन दान श्रावक साधु दोनों, लहैं नाहीं बोध को ।। ॐ ह्रीं श्री उत्तमत्यागधर्माङ्गाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। परिग्रह चौबिस भेद, त्याग करें मुनिराजजी। तिसना भाव उछेद, घटती जान घटाइए ।। उत्तम आकिंचन गुण जानो, परिग्रह-चिन्ता दुख ही मानो। फाँस तनक-सी तन में सालै, चाह लँगोटी की दुख भाले।। भालै न समता सुख कभी नर, बिना मुनि-मुद्रा धरै । धनि नगन पर तन-नगन ठाड़े, सुर-असुर पायनि परें ।। घर माहिं तिसना जो घटावे, रुचि नहीं संसार सौं। बहु धन बुरा हू भला कहिये, लीन पर-उपगार सौं ।। ॐ ह्रीं श्री उत्तमाकिंचन्यधर्माङ्गाय अयं निर्वपामीति स्वाहा। शील-बाढ़ नौ राख, ब्रह्म-भाव अन्तर लखो। करि दोनों अभिलाख, करहु सफल नर-भव सदा ।। उत्तम ब्रह्मचर्य मन आनौ, माता बहिन सुता पहिचानौ । सहैं बान-वरषा बहु सूरे, टिकै न नैन-बान लखि कूरे ।। कूरे तिया के अशुचि तन में, काम-रोगी रति करें। बहु मृतक सड़हिं मसान माहीं, काग ज्यों चोंचें भरें ।। संसार में विष-बेल नारी, तजि गये जोगीश्वरा । 'द्यानत' धरम दश पैड़ि चढ़ि कै, शिव-महल में पग धरा। ॐ ह्रीं श्री उत्तमब्रह्मचर्यधर्मामाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। समुच्चय जयमाला (दोहा) दश लच्छन वन्दौं सदा, मनवांछित फलदाय । कहों आरती भारती, हम पर होहु सहाय ।। जिनेन्द्र अर्चना 10000 66
SR No.008354
Book TitleJinendra Archana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bansal
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size552 KB
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