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________________ तुम पर के कर्ता नहीं नाथ, ज्ञाता हो सब के एक साथ । तुम भक्तों को कुछ नहीं देत, अपने समान बस बना लेत।। यह मैंने तेरी सुनी आन, जो लेवे तुम को बस पिछान । वह पाता है कैवल्यज्ञान, होता परिपूर्ण कला-निधान ।। विपदामय परपद है निकाम, निजपद ही है आनन्द-धाम । मेरे मन में बस यही चाह, निजपद को पाऊँ हे जिनाह ।। ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अनर्घ्यपदप्राप्तये महायं नि. स्वाहा। (दोहा) पर का कुछ नहिं चाहता, चाहूँ अपना भाव । निज-स्वभाव में थिर रहूँ, मेटो सकल विभाव।। (पुष्याञ्जलिं क्षिपेत् ) अशरीरी सिद्ध भगवान (तर्ज)- (करुणा सागर भगवान, भव पार लगा देना) अशरीरी-सिद्ध भगवान, आदर्श तुम्हीं मेरे। अविरुद्ध शुद्ध चिद्घन, उत्कर्ष तुम्हीं मेरे ।।टेक ।। सम्यक्त्व सुदर्शन ज्ञान, अगुरुलघु अवगाहन । सूक्ष्मत्व वीर्य गुणखान, निर्बाधित सुखवेदन ।। हे गुण अनन्त के धाम, वन्दन अगणित मेरे ।।१।। रागादि रहित निर्मल, जन्मादि रहित अविकल। कुल गोत्र रहित निष्कुल, मायादि रहित निश्छल।। रहते निज में निश्चल, निष्कर्म साध्य मेरे ।।२।। रागादि रहित उपयोग, ज्ञायक प्रतिभासी हो। स्वाश्रित शाश्वत-सुख भोग, शुद्धात्म-विलासी हो।। हेस्वयं सिद्ध भगवान, तुम साध्य बनो मेरे ।।३।। भविजन तुम-सम निज-रूप, ध्याकर तुम-सम होते। चैतन्य पिण्ड शिव-भूप, होकर सब दुख खोते।। चैतन्यराज सुखखान, दुख दूर करो मेरे ।।४।। सिद्ध पूजन (श्री युगलजी कृत) (दोहा) (हरिगीतिका) निज वज्र पौरुष से प्रभो! अन्तर-कलुष सब हर लिये। प्रांजल प्रदेश-प्रदेश में, पीयूष निर्झर झर गये ।। सर्वोच्च हो अत एव बसते, लोक के उस शिखर रे! तुम को हृदय में स्थाप, मणि-मुक्ता चरण को चूमते।। ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिन्! अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिन्! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिन्! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । (वीरछन्द) शुद्धातम-सा परिशुद्ध प्रभो! यह निर्मल नीर चरण लाया। मैं पीड़ित निर्मम ममता से, अब इसका अंतिम दिन आया ।। तुम तो प्रभु अंतर्लीन हुए, तोड़े कृत्रिम सम्बन्ध सभी। मेरे जीवन-धन तुमको पा, मेरी पहली अनुभूति जगी ।। ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलम्. मेरे चैतन्य-सदन में प्रभु! धू-धू क्रोधानल जलता है। अज्ञान-अमा' के अंचल में, जो छिपकर पल-पल पलता है।। प्रभु! जहाँ क्रोध का स्पर्श नहीं, तुम बसो मलय की महकों में। मैं इसीलिए मलयज लाया, क्रोधासुर भागे पलकों में ।। ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने संसारतापविनाशनाय चन्दनम्... अधिपति प्रभु! धवल भवन केहो, और धवल तुम्हारा अन्तस्तल । अंतर के क्षत सब विक्षत कर, उभरा स्वर्णिम सौंदर्य विमल।। मैं महामान से क्षत-विक्षत, हूँ खंड-खंड लोकांत-विभो। मेरे मिट्टी के जीवन में, प्रभु! अक्षत की गरिमा भर दो।। ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान्...... १. शुद्ध २. अमावस्या ३. सिद्धशिला जिनेन्द्र अर्चना/0001 100 जिनेन्द्र अर्चना 57
SR No.008354
Book TitleJinendra Archana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bansal
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size552 KB
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