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________________ अष्टम वसुधा पाने को, कर में ये आठों द्रव्य लिये। सहज शुद्ध स्वाभाविकता से, निज में निज गुण प्रकट किये।। ये अर्घ्य समर्पण करके मैं, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ। विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ।। ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो विद्यमानविंशतितीर्थकरेभ्यः श्री अनन्तानन्तसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अयं निर्वपामीति स्वाहा। जयमाला देव शास्त्र गुरु बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु भगवान । अब वरD जयमालिका, करूँ स्तवन गुणगान ।। नशे घातिया कर्म अरहन्त देवा, को सुर-असुर-नर-मुनि नित्य सेवा । दरशज्ञान सुखबल अनन्त के स्वामी, छियालिस गुणयुत महाईशनामी।। तेरी दिव्यवाणी सदा भव्य मानी, महामोह विध्वंसिनी मोक्ष-दानी। अनेकांतमय द्वादशांगी बखानी, नमो लोक माता श्री जैनवाणी।। विरागी अचारज उवज्झाय साधू, दरश-ज्ञान भण्डार समता अराधू। नगन वेशधारी सु एका विहारी, निजानन्द मंडित मुकति पथ प्रचारी।। विदेह क्षेत्र में तीर्थंकर बीस राजें, विहरमान वंदूं सभी पाप भाजें। नमूं सिद्ध निर्भय निरामय सुधामी, अनाकुल समाधान सहजाभिरामी ।। ॐ ह्रीं श्री देव-शाख-गुरुभ्यो विद्यमानविंशतितीर्थकरेभ्यः . अनन्तानन्तसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमालामहायं निर्वपामीति स्वाहा। देव-शास्त्र-गुरु बीस तीर्थंकर, सिद्ध हृदय बिच धर लेरे। पूजन ध्यान गान गुण करके, भवसागर जिय तर ले रे।। पुष्पांजलिं क्षिपेत् । पंच-परमेष्ठी पूजन (श्री राजमलजी पवैया कृत) अरहन्त सिद्ध आचार्य नमन, हे उपाध्याय हे साधु नमन। जय पंच परम परमेष्ठी जय, भवसागर तारणहार नमन ।। मन-वच-काया पूर्वक करता हूँ, शुद्ध हृदय से आह्वानन । मम हृदय विराजो तिष्ठ तिष्ठ, सन्निकट होहु मेरे भगवन ।। निज आत्मतत्त्व की प्राप्ति हेतु, ले अष्ट द्रव्य करता पूजन। तुम चरणों की पूजन से प्रभु, निज सिद्ध रूप का हो दर्शन। ॐह्रीं श्री अरहन्त-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधुपंचपरमेष्ठिन् ! अत्र अवतर-अवतर संवौषट्। ॐ ह्रीं श्री अरहन्त-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधुपंचपरमेष्ठिन्! अत्र तिष्ठ, तिष्ठ, ठः ठः। ॐ ह्रीं श्री अरहन्त-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधुपंचपरमेष्ठिन्! अत्र मम सन्निहितो भव-भव वषट्। मैं तो अनादि से रोगी हूँ, उपचार कराने आया हूँ। तुम सम उज्ज्वलता पाने को, उज्ज्वल जल भरकर लाया हूँ।। मैं जन्म-जरा-मृतु नाश करूँ, ऐसी दो शक्ति हृदय स्वामी। हे पंच परम परमेष्ठी प्रभु, भव-दुःख मेटो अन्तर्यामी ।। ॐ ह्रीं श्री पंचपरमेष्ठिभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। संसार-ताप में जल-जल कर, मैंने अगणित दुःख पाये हैं। निज शान्त स्वभाव नहीं भाया, पर के ही गीत सुहाये हैं।। शीतल चंदन है भेट तुम्हें, संसार-ताप नाशो स्वामी। हे पंच परम परमेष्ठी प्रभु, भव-दुःख मेटो अन्तर्यामी ।। ॐ ह्रीं श्री पंचपरमेष्ठिभ्यः संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा। दुःखमय अथाह भवसागर में, मेरी यह नौका भटक रही। शुभ-अशुभभावकी भँवरों में चैतन्य शक्ति निज अटकरही।। तन्दुल है धवल तुम्हें अर्पित, अक्षयपद प्राप्त करूँ स्वामी। हे पंच परम परमेष्ठी प्रभु, भव-दुःख मेटो अन्तर्यामी ।। ॐ ह्रीं श्री पंचपरमेष्ठिभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षता निर्वपामीति स्वाहा। जिनेन्द्र अर्चना/100000000 अपनी उन्नति में इतना समय लगाओ कि दूसरे की निन्दा करने की फुरसत ही न मिले। १०० जिनेन्द्र अर्चना 51
SR No.008354
Book TitleJinendra Archana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bansal
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size552 KB
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