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________________ अब काललब्धि बलते दयाल, तुम दर्शन पाय भयो खुशाल। मन शांत भयो मिटि सकल द्वन्द्व, चाख्यो स्वातमरस दुख निकंद ।।१२।। तातें अब ऐसी करहु नाथ, बिछुरै न कभी तुव चरण साथ । तुम गुणगण को नहिं छेव देव, जग तारन को तुव विरद एव ।।१३ ।। आतम के अहित विषय-कषाय, इनमें मेरी परिणति न जाय । मैं रहूँ आपमें आप लीन, सो करो होऊँ ज्यों निजाधीन ।।१४ ।। मेरे न चाह कछु और ईश, रत्नत्रयनिधि दीजे मुनीश। मुझ कारज के कारन सु आप, शिव करहु हरहु मम मोहताप ।।१५।। शशि शांतिकरन तपहरन हेत, स्वयमेव तथा तुम कुशल देत । पीवत पियूष ज्यों रोग जाय, त्यों तुम अनुभवतै भव नशाय ।।१६।। त्रिभुवन तिहुँ काल मँझार कोय, नहिं तुम बिन निज सुखदाय होय। मो उर यह निश्चय भयो आज, दुख जलधि उतारन तुम जहाज ।।१७।। (दोहा) तुम गुणगणमणि गणपति, गणत न पावहिं पार । 'दौल' स्वल्पमति किम कहै, न| त्रियोग सँभार ।।१८।। देव-स्तुति (पं. भूधरदासजी कृत) अहो जगत गुरु देव, सुनिये अरज हमारी। तुम प्रभु दीन दयाल, मैं दुखिया संसारी ।।१।। इस भव-वन के माहिं, काल अनादि गमायो । भ्रम्यो चहूँ गति माहि, सुख नहिं दुख बहु पायो ।।२।। कर्म महारिपु जोर, एक न कान करै जी। मन माने दुख देहिं, काहूसों नाहिं डरै जी ।।३।। कबहूँ इतर निगोद, कबहूँ नरक दिखावै । सुर-नर-पशु-गति माहिं, बहुविध नाच नचावै ।।४ ।। प्रभु! इनको परसंग, भव-भव माहिं बुरोजी। जो दुख देखे देव, तुमसों नाहिं दुरोजी ।।५ ।। एक जनम की बात, कहि न सकौं सुनि स्वामी। तुम अनंत परजाय, जानत अंतरजामी ।।६।। मैं तो एक अनाथ, ये मिल दुष्ट घनेरे । कियो बहुत बेहाल, सुनिये साहिब मेरे ।।७।। ज्ञान महानिधि लूट, रंक निबल करि डारो। इनही तुम मुझ माहि, हे जिन! अंतर डारो ।।८।। पाप-पुण्य मिल दोय, पायनि बेड़ी डारी । तन कारागृह माहिं, मोहि दियो दुख भारी ।।९।। इनको नेक बिगाड़, मैं कछु नाहिं कियो जी। बिन कारन जगवंद्य! बहुविध बैर लियो जी ।।१०।। अब आयो तुम पास, सुनि जिन! सुजस तिहारौ। नीति निपुन महाराज, कीजै न्याय हमारौ ।।११।। दुष्टन देहु निकार, साधुन कौं रखि लीजै । विनवै, 'भूधरदास', हे प्रभु! ढील न कीजै ।।१२ ।। जिनेन्द्र अर्चना 10000 प्रक्षाल के सम्बन्ध में विचारणीय प्रमुख बिन्दु - १. अरहन्त भगवान का अभिषेक नहीं होता, जिनबिम्ब का प्रक्षाल किया जाता है, जो अभिषेक के नाम से प्रचलित है। २. जिनबिम्ब का प्रक्षाल शुद्ध वस्त्र पहनकर मात्र शुद्ध जल से किया जाये। ३. प्रक्षाल मात्र पुरुषों द्वारा ही किया जाये। महिलायें जिनबिम्ब को स्पर्श न करें। ४. जिनबिम्ब का प्रक्षाल प्रतिदिन एक बार हो जाने के पश्चात् बार-बार न करें। जिनेन्द्र अर्चना 30
SR No.008354
Book TitleJinendra Archana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bansal
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size552 KB
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