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________________ आरती का अर्थ 'पूजन' शब्द की भाँति ही 'आरती' शब्द का अर्थ भी आज बहुत संकुचित हो गया है। आरती को आज एक क्रिया विशेष से जोड़ दिया गया है, जबकि आरती पंचपरमेष्ठी के गुणगान को कहते हैं। जिनदेव का गुणगान करना ही जिनेन्द्रदेव की वास्तविक आरती है। पूजन साहित्य में 'आरती' शब्द जहाँ-जहाँ भी आया है, सभी जगह उसका अर्थ गुणगान करना ही है। इस संदर्भ में कुछ महत्त्वपूर्ण उद्धरण द्रष्टव्य नहीं है; क्योंकि नवग्रहों के रूप में जो ये ज्योतिषीदेव हैं, वे स्वयं भी सब मिलकर जिनेन्द्र के चरणों की सेवा करते हैं। नवग्रह विधान में इन्हीं उपर्युक्त नवदेवताओं की पूजन की जाती है, नवग्रहों की नहीं । जहाँ तक नवग्रहों की शान्ति का सवाल है, सो वह तो अपने पुण्य-पाप के आधीन है, किन्तु इतना अवश्य है कि वीतराग देव की निष्कामभक्ति करने से सहज ही पापकर्म क्षीण होते हैं और पुण्यकर्म बँधता है, इससे बाह्य अनुकूलता भी सहज ही प्राप्त हो जाती है। इस संबंध में पण्डित टोडरमलजी का निम्नांकित कथन द्रष्टव्य है :___ “यहाँ कोई कहे कि - जिससे इन्द्रियजनित सुख उत्पन्न हो तथा दुःख का विनाश हो - ऐसे भी प्रयोजन की सिद्धि इनके द्वारा होती है या नहीं? उसका समाधान :- जो अरहतादि के प्रति स्तवनादि रूप विशुद्ध परिणाम होते हैं, उनसे अघातिया कर्मों की साता आदि पुण्य प्रकृतियों का बन्ध होता है और यदि वे (भक्ति-स्तवनादि) के परिणाम तीव्र हों तो पूर्वकाल में जो असाता आदि पाप-प्रकृतियों का बन्ध हुआ था, उन्हें भी मन्द करता है अथवा नष्ट करके पुण्यप्रकृतिरूप परिणमित करता है और पुण्य का उदय होने पर स्वयमेव इन्द्रियसुख की कारणभूत सामग्री प्राप्त होती है। तथा पाप का उदय दूर होने पर स्वयमेव दुःख की कारणभूत सामग्री दूर हो जाती है। इसप्रकार इस प्रयोजन की भी सिद्धि उनके द्वारा होती है। अथवा जो जिनशासन के भक्त देवादिक हैं, वे उस पुरुष को अनेक इन्द्रिय सुख की कारणभूत सामग्रियों का संयोग कराते हैं और दुःख की कारणभूत सामग्रियों को दूर करते हैं - इसप्रकार भी इस प्रयोजन की सिद्धि उन अरहंतादिक द्वारा होती है, परन्तु इस प्रयोजन से कुछ भी अपना हित नहीं होता, क्योंकि यह आत्मा कषाय भावों से बाह्य सामग्रियों में इष्ट-अनिष्टपना मानकर स्वयं ही सुख-दुःख की कल्पना करता है। कषाय बिना बाह्य सामग्री कुछ सुख-दुःख की दाता नहीं है। इसलिए इन्द्रियजनित सुख की इच्छा करना और दुःख से डरना - यह भ्रम देव-शास्त्र-गुरु रतन शुभ, तीन रतन करतार । भिन्न-भिन्न कहुँ आरती, अल्प सुगुण विस्तार ।। देखिए! इस पद्य में देव-शास्त्र-गुरु को तीन रत्न कहा गया है तथा इन तीनों रत्नों को क्रमशः सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्ररूप तीनों रत्नों का कर्ता (निमित्त) कहा गया है। तथा 'भिन्न-भिन्न कहँ आरती' कहकर तीनों का भिन्न-भिन्न गुणानुवाद करने का संकल्प किया गया है। इसीप्रकार पंचमेरु पूजा, गुरु पूजा, दशलक्षणधर्म पूजा, क्षमावाणी पूजा, सिद्धचक्रमण्डल विधान आदि के निम्नांकित पदों से भी 'आरती' का अर्थ गुणगान करना ही सिद्ध होता है। पंचमेरु की 'आरती', पढ़े सुनै जो कोय । 'द्यानत' फल जानै प्रभु, तुरत महासुख होय ।। तीन घाटि नव कोड़ि सब, बन्दों शीश नवाय। गुण तिन अट्ठाईस लों, कहूँ 'आरती' गाय ।।' दशलक्षण बन्दौ सदा, मनवांछित फलदाय । कहों 'आरती' भारती, हम पर होहु सहाय ।।" १. देव-शास्त्र-गुरु पूजन : कविवर द्यानतराय, जयमाला। २. पंचमेरु पूजन (जयमाला का अन्तिम छन्द): कविवर द्यानतराय। ३. गुरु पूजन : कविवर द्यानतराय, जयमाला का प्रथम छन्द । ४. दशलक्षण धर्म पूजा : जयमाला का प्रथम छन्द। जिनेन्द्र अर्चना 1000000 १. मोक्षमार्गप्रकाशक : पृष्ठ ६ जिनेन्द्र अर्चना 100000४३
SR No.008354
Book TitleJinendra Archana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bansal
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size552 KB
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