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________________ क्या परिणाम निकलता है? यह बात निम्नांकित पंक्तियों में कितनी सहजता से व्यक्त हो गई है - करुणानिधि तुम को समझ नाथ, भगवान भरोसे पड़ा रहा। भरपूर सुखी कर दोगे तुम, यह सोचे सन्मुख खड़ा रहा ।। तुम वीतराग हो लीन स्वयं में, कभी न मैंने यह जाना । तुम हो निरीह जग से कृत-कृत, इतना ना मैंने पहचाना ।। " इसी प्रकार शास्त्र के यथार्थ स्वरूप को दर्शानेवाली निम्नांकित पंक्तियाँ भी द्रष्टव्य हैं - महिमा है अगम जिनागम की महिमा है........ । । टेक ।। जाहि सुनत जड़ भिन्न पिछानी, हम चिन्मूरति आतम की । रागादिक दुःख कारन जानें, त्याग दीनि बुद्धि भ्रम की । ज्ञान ज्योति जागी उर अन्तर, रुचि वाढ़ी पुनि शम-दम की ।। वीतरागता की पोषक ही जिनवाणी कहलाती है । यह है मुक्ति का मार्ग निरन्तर जो हमको दिखलाती है ।। सो स्याद्वादमय सप्तभंग, गणधर गूँथे बारह सुअंग । रवि - शशि न हरै सो तम हराय, सो शास्त्र नमों बहु प्रीति लाय ।। देखो, शास्त्र का स्वरूप लिखते हुए सभी कवियों ने इसी बात पर ही जोर दिया है कि जिनवाणी रूपी गंगा वह है जो अनेकान्तमय वस्तुस्वरूप को दर्शानेवाली हो, भेदविज्ञान प्रकट करनेवाली हो, मिथ्यात्वरूप महातम का विनाश करनेवाली हो, विविध नयों की कल्लोलों से विमल हो, स्याद्वादमय व सप्तभंग से सहित हो और वीतरागता की पोषक हो । जो राग-द्वेष को बढ़ाने में निमित्त बने, वह वीतराग वाणी नहीं हो सकती । जिनवाणी की परीक्षा उपर्युक्त लक्षणों से ही होनी चाहिए। किसी स्थान विशेष सेवासितार होने से व उसा भक्ति, अम, अशक्ति प्रकट करना या सच्चेझूठे कर्मिणया करती किसानी ष्टि से उचित नहीं है। डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल देव-शाख-गुरु पूजन, जयमाला । ४. कविवर द्यानतराय देव-शास्त्र-गुरु पूजन, जयमाला । ३४ जिनेन्द्र अर्चना 18 सिद्धचक्र - मण्डल विधान : अनुशीलन हिन्दी पूजन - भक्ति साहित्य में एक विधा मंडल पूजन-विधान की भी है। ये मंडल पूजन-विधान विशेष अवसरों पर विशेष आयोजनों के साथ किये जाते हैं। इस विधा के कवि संतलाल, टेकचन्द, स्वरूपचन्द, वृन्दावन आदि हैं। पूजा-विधानों में सिद्धचक्रविधान का सर्वाधिक महत्त्व है; क्योंकि सिद्धचक्रविधान का प्रयोजन सिद्धों के गुणों का स्मरण करते हु अपनी आत्मा को सिद्धदशा तक पहुँचाना होता है और आत्मा के लिए इससे उत्कृष्ट अन्य उद्देश्य नहीं हो सकता। हिन्दी विधानों में सिद्धचक्रमंडल विधान के रचयिता कविवर संतलाल का नाम सर्वोपरि है; क्योंकि उनकी यह रचना साहित्यिक दृष्टि से तो उत्तम है ही, साथ ही भक्ति काव्य होते हुए भी आध्यात्मिक एवं तात्त्विक भावों से भरपूर है । एक-एक अर्घ्य के पद का अर्थगांभीर्य एवं विषयवस्तु विचारणीय है । तत्त्वज्ञानपरक, जाग्रतविवेक, विशुद्ध आध्यात्मिक दृष्टि एवं निष्काम भक्ि की त्रिवेणी जैसी इसमें प्रवाहित हुई है, वैसी अन्यत्र दिखाई नहीं देती । निश्चय ही हिन्दी विधान पूजा साहित्य में कविवर संतलाल का उल्लेखनीय योगदान है। इस विधान की आठों जयमालायें एक से बढ़कर एक हैं। सभी में सिद्धों का विविध आयामों से तत्त्वज्ञानपरक गुणगान किया गया है। इनमें न तो कहीं लौकिक कामनाओं की पूर्ति विषयक चाह ही प्रकट की गई है और न प्रलोभन ही दिया गया है। पहली जयमाला में ही सिद्धभक्ति के माध्यम से गुणस्थान क्रम में संसा से सिद्ध बनने की सम्पूर्ण प्रक्रिया अति संक्षेप में जिस खूबी से दर्शाई गई है, वह द्रष्टव्य है : जिनेन्द्र अर्चना ३५
SR No.008354
Book TitleJinendra Archana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bansal
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size552 KB
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