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________________ इसी अभिप्राय से आचार्यों ने अष्टद्रव्यों में उत्तमोत्तम कल्पनायें की हैं - मणिजड़ित सोने की झारी और उसमें क्षीरसागर या गंगा का निर्मल जल, रत्नजड़ित मणिदीप, उत्तमोत्तम पकवान एवं सुस्वादु सरस फल आदि। यही कारण है कि अब तक उपलब्ध प्राचीन पूजन साहित्य में अधिकांशतः यही धारा प्राप्त होती है। सब कुछ बढ़िया होने पर भी इसमें कभी-कभी ऐसा लगने लगता है कि हम जिनेन्द्र देव के नहीं, उन्हें चढ़ाई जानेवाली सामग्री के गीत गा रहे हैं। कभी-कभी तो ऐसा भी होता है कि हम जल-फल आदि की प्रशंसा में इतने मग्न हो जाते हैं कि भगवान को भी भूल जाते हैं। शायद हमारी इसी कमजोरी को ध्यान में रखकर आज जो नई आध्यात्मिक धारायें विकसित हो रहीं हैं, उनमें जल-फलादि सामग्री के गुणगान की अपेक्षा उनको प्रतीक बनाकर जिनेन्द्र भगवान के अधिक गुण गाये गये हैं तथा जीवनोपयोगी बहुमूल्य सुन्दरतम जलादि सामग्री की अनुशंसा की अपेक्षा सुख और शान्ति की प्राप्ति में उनकी निरर्थकता अधिक बताई गई है। इसी कारण उसके त्याग की भावना भी भायी गई है। यह बात भी नहीं है कि यह धारा आधुनिक युग की ही देन हो । क्षीण रूप में ही सही, पर यह प्राचीन काल में भी प्रवाहित थी। इस युग में यह मूलधारा के रूप में चल रही है। इसप्रकार हम देखते हैं कि वर्तमान में हिन्दी पूजन साहित्य में मुख्यरूप से तीन धारायें प्रवाहित हो रही हैं : १. पहली तो चढ़ाये जानेवाले द्रव्य की विशेषताओं की निरूपक। २. दूसरी द्रव्यों के माध्यम से पूज्य परमात्मा के गुणानुवाद करने वाली। ३. तीसरी लौकिक जीवनोपयोगी एवं सम्मानसूचक बहुमूल्य पदार्थों की आध्यात्मिक जीवन की समृद्धि में निरर्थकता बताकर उन्हें त्यागने की भावना व्यक्त करनेवाली। - प्रथम धारा की बात तो स्पष्ट हो ही चुकी। दूसरी धारा में कविवर द्यानतराय का निम्नांकित छन्द द्रष्टव्य है :२८000000000 10. जिनेन्द्र अर्चना "उत्तम अक्षत जिनराज पुंज धरें सोहें। सब जीते अक्षसमाज तुम-सम अरु कोहै।"१ उक्त छन्द में अक्षतों (सफेद चावलों) के अवलम्बन से जिनराज को ही उत्तम अक्षत कहा गया है। यहाँ कवि का कहना है कि - हे जिनराज! अनन्तगुणों के समूह (पुंज) से शोभायमान, कभी भी नाश को प्राप्त न होनेवाले अक्षय स्वरूप होने से आप ही वस्तुतः उत्तम अक्षत हो। आपने समस्त अक्षसमाज (इन्द्रिय समूह) को जीत लिया है; अतः हे जितेन्द्रियजिन! आपके समान इस जगतमें और कौनहो सकता है? सचमुच देखा जाये तो आप ही सच्चे अक्षत हो, अखण्ड व अविनाशी हो। उक्त सन्दर्भ में निम्नांकित पंक्तियाँ भी द्रष्टव्य हैं :सचमुच तुम अक्षत हो प्रभुवर तुम ही अखण्ड अविनाशी हो। प्रभुवर तुम जल-से शीतल हो, जल-से निर्मल अविकारी हो । मिथ्यामल धोने को प्रभुवर, तुम ही तो मल परिहारी हो।।' तीसरी धारा में आनेवाली सर्वस्व समर्पण की भावना से ओत-प्रोत निम्नांकित प्राचीन पूजन की पंक्तियाँ भी अपने आप में अद्भुत हैं : यह अरघ कियो निज हेत, तुम को अरपत हों। द्यानत कीनो शिवखेत, भूमि समरपत हों।।' इस सन्दर्भ में आधुनिक पूजन की निम्न पंक्तियाँ भी दृष्टव्य हैं - बहुमूल्य जगत का वैभव यह, क्या हमको सुखी बना सकता। अरे! पूर्णता पाने में, क्या इसकी है आवश्यकता ।। मैं स्वयं पूर्ण हूँ अपने में, प्रभु है अनर्घ्य मेरी माया। बहुमूल्य द्रव्यमय अर्घ्य लिये, अर्पण के हेतु चला आया।।' श्री जुगलकिशोरजी 'युगल' कृत देव-शास्त्र-गुरु-पूजन में यह भावना भी सशक्त रूप में व्यक्त हुई है :१. कविवर द्यानतराय : नन्दीश्वर पूजन। २. डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल : सिद्ध पूजन । ३. वही : सीमन्धर पूजन। ४. कविवर द्यानतराय: नन्दीश्वर पूजन। ५. हुकमचन्द भारिल्ल : देव-शास्त्र-गुरु-पूजन । जिनेन्द्र अर्चना 1000000 15
SR No.008354
Book TitleJinendra Archana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bansal
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size552 KB
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