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________________ मिथ्यादर्शन आत्मज्ञान बिन, यह तन अपनो जान्यो। इन्द्रीभोग गिने सुख मैंने, आपो नाहिं पिछान्यो ।। तन विनशनः नाश जानि निज, यह अयान दुःखदाई। कुटुम्ब आदि को अपनो जान्यो, भूल अनादी छाई।।२०।। अब निज भेद जथारथ समझ्यो, मैं हूँ ज्योतिस्वरूपी। उप– विनसै सो यह पुद्गल, जान्यो याको रूपी ।। इष्टऽनिष्ट जेते सुख दुख हैं, सो सब पुद्गल सागै। मैं जब अपनो रूप विचारों, तब वे सब दुख भागें ।।२१।। बिन समता तनऽनंत धरे मैं, तिन में ये दुख पायो। शस्त्रघाततैऽनन्त बार मर, नाना योनि भ्रमायो ।। बार अनन्तहि अग्नि माहिं जर, मूवो सुमति न लायो। सिंह व्याघ्र अहिऽनन्त बार मुझ, नाना दुःख दिखायो।।२२।। बिन समाधि ये दुःख लहे मैं, अब उर समता आई। मृत्युराज को भय नहिं मानो, देवै तन सुखदाई ।। यातें जब लग मृत्यु न आवै, तब लग जप तप कीजै। जप तप बिन इस जग के माहीं, कोई कभी ना सीजै।।२३ ।। स्वर्ग सम्पदा तपसों पावै, तपसों कर्म नसावै । तप ही सों शिवकामिनिपति है, यासों तप चित लावै।। अब मैं जानी समता बिन मुझ, कोऊ नाहिं सहाई। मात-पिता सुत बांधव तिरिया, ये सब हैं दुःखदाई ।।२४ ।। मृत्यु समय में मोह करें ये, तातैं आरत हो है। आरतते गति नीची पावै, यों लख मोह तज्यो है।। और परीग्रह जेते जग में, तिनसों प्रीत न कीजे। परभव में ये संग न चालैं, नाहक आरत कीजे ।।२५ ।। जे-जे वस्तु लखत हैं ते पर, तिनसों नेह निवारो। परगति में ये साथ न चालैं, ऐसो भाव विचारो ।। VI000000000 जिनेन्द्र अर्चना जो परभव में संग चलें तुझ, तिनसों प्रीत सु कीजै। पंच पाप तज समता धारो, दान चार विध दीजै ।।२६ ।। दशलक्षणमय धर्म धरो उर, अनुकम्पा उर लावो। षोडशकारण नित्य विचारो, द्वादश भावन भावो ।। चारों परवी प्रोषध कीजै, अशन रात को त्यागो। समता धर दुरभाव निवारो, संयमसों अनुरागो ।।२७ ।। अन्त समय में यह शुभ भावहि, हो आनि सहाई। स्वर्ग मोक्ष फल तोहि दिखावें, ऋद्धि देहिं अधिकाई।। खोटे भाव सकल जिय त्यागो, उर में समता लाकैं। जा सेती गति चार दूर कर, बसहु मोक्षपुर जाकैं।।२८ ।। मन थिरता करकै तुम चिंतो, चौ आराधन भाई। ये ही तोकों सुख की दाता, और हितू कोउ नाहीं।। आगे बह मुनिराज भये हैं, तिन गहि थिरता भारी। बहु उपसर्ग सहे शुभ पावन, आराधन उरधारी ।।२९ ।। तिनमें कछु इक नाम कहूँ मैं, सो सुन जिय चित लाकै। भावसहित अनुमोदे तासों, दुर्गति होय न ताकै ।। अरु समता निज उर में आवै, भाव अधीरज जावै। यों निश-दिन जो उन मुनिवर को, ध्यान हिये विचलावै।।३० ।। धन्य-धन्य सुकुमाल महामुनि, कैसे धीरज धारी। एक श्यालनी जुग बच्चाजुत, पाँव भख्यो दुःखकारी।। यह उपसर्ग सह्यो धर थिरता, आराधन चित धारी। तो तुमरे जिय कौन दुःख है? मृत्यु महोत्सव भारी ।।३१ ।। धन्य-धन्य जु सुकौशल स्वामी, व्याघ्री ने तन खायो। तो भी श्रीमुनि नेक डिगे नहीं, आतम सों हित लायो।। यह उपसर्ग सह्यो धर थिरता, आराधन चित धारी। तो तुमरे जिय कौन दुःख है? मृत्यु महोत्सव भारी ।।३२ ।। जिनेन्द्र अर्चना/00000 (१२९५ 148
SR No.008354
Book TitleJinendra Archana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bansal
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size552 KB
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