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________________ नाभेयादि-जिनाधिपास्त्रिभुवनख्याताश्चतुर्विंशतिः, श्रीमन्तो भरतेश्वरप्रभृतयो ये चक्रिणो द्वादश । ये विष्णुप्रतिविष्णु-लाङ्गलधराः सप्तोत्तरा विंशतिः, त्रैकाल्ये प्रथितास्त्रिषष्टिपुरुषाः कुर्वन्तु ते मंगलम् ।।४।। ये सर्वोषधऋद्धयः सुतपसो वृद्धिंगता पंच ये, ये चाष्टांगमहानिमित्तकुशला येऽष्टाविधाश्चारणाः । पञ्चज्ञानधरास्त्रयोऽपि बलिनो ये बुद्धि-ऋद्धीश्वराः, सप्तैते सकलार्चिता गणभृतः कुर्वन्तु ते मंगलम् ।।५ ।। कैलाशे वृषभस्य निर्वृतिमही वीरस्य पावापुरे, चम्पायां वसुपूज्य सज्जिनपतेः सम्मेदशैलेऽर्हताम् । शेषाणामपि चोर्जयन्तशिखरे नेमीश्वरस्याहतो, निर्वाणावनयः प्रसिद्धविभवाः कुर्वन्तु ते मंगलम् ।।६।। ज्योतिय॑न्तर-भावनामरगृहे मेरौ कुलाद्रौ तथा, जम्बू-शाल्मलि-चैत्यशाखिषु तथा वक्षार-रौप्याद्रिषु । इष्वाकारगिरौ च कुण्डलनगे द्वीपे च नन्दीश्वरे, शैले ये मनुजोत्तरे जिनगृहाः कुर्वन्तु ते मंगलम् ।।७ ।। यो गर्भावतरोत्सवो भगवतां जन्माभिषेकोत्सवो, यो जातः परिनिष्क्रमेण विभवो यः केवलज्ञानभाक् । यः कैवल्यपुरप्रवेशमहिमा संपादितः स्वर्गिभिः, कल्याणानि च तानि पञ्च सततं कुर्वन्तु ते मंगलम् ।।८।। इत्थं श्री जिनमंगलाष्टकमिदं सौभाग्यसंपत्प्रदम्, कल्याणेषु महोत्सवेषु सुधियस्तीर्थङ्कराणां मुखात् । ये शृण्वन्ति पठन्ति तैश्च सुजनैर्धर्मार्थकामान्विता, लक्ष्मीराश्रियते व्यपायरहिता निर्वाणलक्ष्मीरपि ।।९।। समाधिमरण भाषा (पं.सूरचन्दजी कृत) (नरेन्द्र छन्द) वन्दौ श्री अरहंत परमगुरु, जो सबको सुखदाई। इस जग में दुःख जो मैं भुगते, सो तुम जानो राई।। अब मैं अरज करूँ प्रभु तुमसे, कर समाधि उर माहीं। अन्त समय में यह वर माँगें, सो दीजे जग राई ।।१।। भव-भव में तन धार नये मैं, भव-भव शुभ संग पायो। भव-भव में नृप रिद्धि लई मैं, मात-पिता सुत थायो।। भव-भव में तन पुरुष-तनों धर, नारी हू तन लीनों। भव-भव में मैं भयो नपुंसक, आतमगुण नहिं चीनों।।२।। भव-भव में सुरपदवी पाई, ताके सुख अति भोगे। भव-भव में गति नरकतनी धर, दुख पाये विधि योगे।। भव-भव में तिर्यंच योनि धर, पायो दुख अति भारी। भव-भव में साधर्मी जन को, संग मिल्यो हितकारी ।।३।। भव-भव में जिनपूजन कीनी, दान सुपात्रहिं दीनो। भव-भव में मैं समवसरण में, देख्यो जिनगुण भीनो।। एती वस्तु मिली भव-भव में, सम्यक्गुण नहिं पायो। ना समाधियुत मरण कियो मैं, तातै जग भरमायो ।।४।। काल अनादि भयो जग भ्रमतें, सदा कुमरणहिं कीनों। एक बार हूँ सम्यक्युत मैं, निज आतम नहिं चीनों।। जो निज-पर को ज्ञान होय तो, मरण समय दुःख काँई। देह विनासी मैं निजभासी, शांति स्वरूप सदाई ।।५।। विषय-कषायन के वश होकर, देह आपनो जान्यो। कर मिथ्या सरधान हिये विच, आतम नाहिं पिछान्यो।। यों कलेश हिय धार मरणकर, चारों गति भरमायो। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरन ये, हिरदे में नहिं लायो ।।६।। जिनेन्द्र अर्चना/200000 २९०11000000 10. जिनेन्द्र अर्चना 146
SR No.008354
Book TitleJinendra Archana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bansal
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size552 KB
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