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________________ तुम सुमरत स्वयमेव ही, बन्धन सब खुल जाहिं। छिनमें ते संपति लहैं, चिंता भय विनसाहिं ।।४६।। महामत्त गजराज और मृगराज दवानल । फणपति रण परचंड नीर-निधि रोग महाबल ।। बन्धन ये भय आठ डरपकर मानों नाशै । तुम सुमरत छिनमाहिं अभय थानक परकाशै ।। इस अपार संसार में, शरन नाहिं प्रभु कोय । या तुम पद-भक्त को, भक्ति सहाई होय ।।४७ ।। यह गुनमाल विशाल नाथ तुम गुनन सँवारी। विविध-वर्णमय-पुहुप गूंथ मैं भक्ति विथारी ।। जे नर पहिरे कंठ भावना मन में भा। 'मानतुंग' ते निजाधीन-शिव-लछमी पावै ।। भाषा भक्तामर कियो, 'हेमराज' हित हेत । जे नर पढ़ें सुभावसों, ते पावै शिव-खेत ।।४८ ।। पार्श्वनाथ स्तोत्र (पं.द्यानतरायजी कृत) (भुजंगप्रयात छन्द) नरेन्द्रं फणीन्द्रं सुरेन्द्र अधीसं, शतेन्द्रं सु पूर्जे भ6 नाय शीशं । मुनीन्द्रं गणेन्द्रं नमों जोड़ि हाथं नमो देवदेवं सदा पार्श्वनाथं ।।१।। गजेन्द्रं मृगेन्द्रं गह्यो तू छुड़ावै, महा आगरौं नाग” तू बचावै। महावीर” युद्ध में तू जितावै, महारोगरौं बंधते तू छुड़ावै ।।२।। दुखीदुःखहर्ता सुखीसुक्खकर्ता, सदा सेवकों को महानंदभर्ता । हरे यक्ष राक्षस्स भूतं पिशाचं, विषं डाकिनी विघ्न के भय अवाचं ।।३।। दरिद्रीन को द्रव्य के दान दीने, अपुत्रीनकौं तू भले पुत्र कीने । महासंकटों से निकारै विधाता, सबै संपदा सर्व को देहि दाता ।।४।। महाचोर को वज्र का भय निवार, महापौन के पुंजते तू उबारै । महाक्रोध की अग्नि को मेघ-धारा, महालोभ शैलेश को वज्र भारा ।।५।। महामोह अन्धेर को ज्ञान भानं, महाकर्मकांतार को दौं प्रधानं । किये नाग नागिन अधोलोकस्वामी, हस्यो मान तू दैत्य को हो अकामी ।।६।। तुही कल्पवृक्षं तुही कामधेनु, तुही दिव्य चिंतामणी नाग एनं । पशू नर्क के दुःखतें तू छुड़ावै, महास्वर्ग में मुक्ति में तू बसावै ।।७।। करे लोह को हेमपाषाण नामी, स्टै नाम सो क्यों न हो मोक्षगामी। करै सेव ताकी करें देव सेवा, सुनै वैन सोही लहै ज्ञान मेवा ।।८।। जपै जाप ताको नहीं पाप लागै, धरै ध्यान ताके सबै दोष भाग। बिना तोहि जाने धरे भव घनेरे, तुम्हारी कृपारौं सरै काज मेरे।।९।। (दोहा) 22. दया दान पूजा शील पूँजी सों अजानपने, जितनी ही तू अनादि काल में कमायगो। तेरे बिन विवेक की कमाई न रहे हाथ, भेद-ज्ञान बिना एक समय में गमायगो।। अमल अखंडित स्वरूप शुद्ध चिदानन्द, याके वणिज माहिं एक समय जो रमायगो। मेरी समझ मान जीव अपने प्रताप आप, एक समय की कमाई तू अनन्त काल खायगो।। (दोहा) गणधर इन्द्र न कर सकें, तुम विनती भगवान । 'द्यानत' प्रीति निहारकैं, कीजे आप समान ।।१०।। जिनेन्द्र अर्चना /000000 ૨૮૭ 100 जिनेन्द्र अर्चना 144
SR No.008354
Book TitleJinendra Archana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bansal
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size552 KB
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