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________________ पूजन के लिए प्रासुक अष्ट द्रव्य पूजन के विविध आलम्बनों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण आलम्बन अष्ट द्रव्य माने जाते हैं । अष्ट द्रव्य चढ़ाने के सम्बन्ध में वर्तमान में स्पष्ट दो मत हैं । प्रथम पक्ष के अनुसार तो अचित्त प्रासुक द्रव्य ही पूजन के योग्य हैं । यह पक्ष सचित्त द्रव्य को हिंसामूलक होने से स्वीकार नहीं करता तथा दूसरा पक्ष पूजन सामग्री में सचित्त अर्थात् हरितकाय फल-फूल एवं पकवान व मिष्ठान्न को भी पूजन के अष्ट द्रव्य में सम्मिलित करता है। ___ इस सम्बन्ध में यदि हम अपना पक्षव्यामोह छोड़कर साम्यभाव से आगम का अध्ययन करें और उनकी नय विवक्षा को समझने का प्रयत्न करें तो हमें बहुत कुछ समाधान मिल सकता है। पूजन के छन्दों के आधार पर जिन लोगों का यह आग्रह रहता है कि - जब हम विविध फलों और पकवानों के नाम बोलते हैं तो फिर उन्हें ही क्यों न चढ़ायें? भले ही वे सचित्त हों, अशुद्ध हों। उनसे हमारा अनुरोध है कि हमारी पूजा में आद्योपान्त एक वस्तु भी तो वास्तविक नहीं है। स्वयं हमारे पूज्य परमात्मा की स्थापना एक पाषाण की प्रतिमा में की गई है । देवकृत दिव्य समवशरण की स्थापना सीमेंट, ईंट-पत्थर के बने मन्दिर में की गई है। स्वयं पूजक भी असली इन्द्र कहाँ है? जब आद्योपान्त सभी में स्थापना निक्षेप से काम चलाया गया है तो अकेले अष्ट द्रव्य के सम्बन्ध में ही हिंसामूलक सचित्त मौलिक वस्तु काम में लेने का हठाग्रह क्यों? ___ सचित्त पूजा करनेवाले क्या कभी पूजा में उल्लिखित सामग्री के अनुसार पूरा निर्वाह कर पाते हैं? जरा विचार करें - पूजाओं के पदों में तो कंचन-झारी में क्षीरसागर का जल एवं रत्नदीप समर्पित करने की तथा नाना प्रकार के सरस व्यंजनों से पूजा करने की बात आती है; पर आज क्षीरसागर का जल तो क्या कुएँ का पानी कठिन हो रहा है और रत्नदीप तो हमने केवल पुस्तकों में ही देखे हैं। आखिर में जब सभी जगह कल्पना से ही काम चलाना पड़ता है, तब २४ 20 0000 जिनेन्द्र अर्चना हम क्यों नहीं अहिंसामूलक शुद्ध वस्तु से ही काम चलायें? आगमानुसार भी पूजा में तो भावों की ही मुख्यता होती है, द्रव्य की नहीं। द्रव्य तो आलम्बन मात्र है। जैसे विशुद्ध परिणाम होंगे, फल तो वैसा ही मिलेगा। कहा भी है"जीवन के परिणामन की अति विचित्रता देखहु प्राणी। बन्ध-मोक्ष परिणामन ही तैं कहत सदा है जिनवाणी।।" यद्यपि यह बात सच है कि पद्मपुराण, वसुनन्दि श्रावकाचार, सागार धर्मामृत, तिलोयपण्णत्ति और पंचकल्याणक प्रतिष्ठा पाठों में सचित्त द्रव्यों द्वारा की गई पूजा की खूब खुलकर चर्चा है, परन्तु क्या कभी आपने यह देखने व समझने का भी प्रयास किया है कि ये पूजायें किसने, कब, कहाँ की और किन-किन द्रव्यों से की? लगभग सभी चर्चायें इन्द्रध्वज, अष्टाह्निका, कल्पद्रुम, सदार्चन एवं चतुर्मुख पूजाओं से सम्बन्धित हैं, जो सर्वशक्तिसम्पन्न इन्द्रगण, देवगण, पुराणपुरुष, चक्रवर्ती एवं मुकुटबद्ध राजाओं द्वारा दिव्य निर्जन्तुक सामग्री से की जाती हैं। हम सब स्वयं अकृत्रिम चैत्यालयों के अंत में अंचलिका के रूप में पढ़ते हैं - "चहुविहा देवा सपरिवारा दिव्वेण गंधेण, दिव्वेण पुफ्फेण दिव्वेण चुण्णेण, दिव्वेण धूवेण, दिव्वेण वासेण, दिव्वेण ण्हाणेण णिच्चकालं अच्चन्ति पुज्जन्ति वन्दन्ति णमस्संति । अहमवि इह सन्तोतत्थ संताई णिच्चकालं अच्चेमि पुज्जेमि वन्दामि णमस्सामि' अर्थात् सभी सामग्री देवोपनीत कल्पवृक्षों से प्राप्त दिव्य प्रासुक निर्जन्तुक होती है। इस सम्बन्ध में पण्डित सदासुखदासजी के निम्नांकित विचार दृष्टव्य हैं - "इस कलिकाल में भगवान प्ररूप्या नयविभाग तो समझे नाहीं, अर शास्त्रनि में प्ररूपण किया तिस कथनी कू नयविभाग तैं जाने नाही, अर अपनी कल्पना ते ही पक्षग्रहण करि यथेच्छ प्रवर्ते हैं।" १. “वर नीर क्षीर समुद्र घट भरि अग्र तसु वहु विधि नचूँ - देव-शास्त्र-गुरु पूजा : कविवर द्यानतराय २. तिलोयपण्णत्ति ३/२२३-२२६ में भी इसी तरह का उल्लेख है। ३. रत्नकरण्ड श्रावकाचार टीका, पण्डित सदासुखदास, श्लोक १११, पृष्ठ-२११ जिनेन्द्र अर्चना/100000000 ___13
SR No.008354
Book TitleJinendra Archana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bansal
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size552 KB
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