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________________ इसी सन्दर्भ में जैन निबन्ध रत्नावलि का निम्नलिखित कथन भी द्रष्टव्य है - "सोमदेव ने यशस्तिलक चम्पू में और पद्मनन्दि पंचविंशति में अर्हदादि की पूजा में सिर्फ अष्ट द्रव्यों से पूजा तो लिखी है, किन्तु आह्वानन, स्थापन, सन्निधिकरण व विसर्जन नहीं लिखा है। ये सर्वप्रथम पं. आशाधरजी के प्रतिष्ठा पाठ में और अभिषेक पाठ में मिलते हैं, किन्तु अरहन्तपूजा में विसर्जन उन्होंने भी नहीं लिखा । आगे चलकर इन्द्रनन्दि ने अरहन्तादि का विसर्जन भी लिख दिया है। ___ इसी श्रृंखला में इसी काल के आस-पास यशोनन्दि कृत संस्कृत की पंचपरमेष्ठी पूजन में भी पूजन के चार अंग ही मिलते हैं, विसर्जन उसमें भी नहीं है।" इसप्रकार प्राचीन और अर्वाचीन दोनों की पूजन पद्धतियों में पूजन के उपर्युक्त पाँचों अंगों का यत्किंचित् फेर-फार के साथ प्रचलन पाया जाता है। यद्यपि सिद्धलोक में विराजमान वीतराग भगवान की पूजन में तार्किक दृष्टि से विचार करने पर इनका औचित्य प्रतीत नहीं होता, परन्तु भक्तिभावना के स्तर का यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य व व्यावहारिक सत्य है । यह पूजन पद्धति की एक सहज प्रक्रिया है, जो भावनाओं से ही अधिक सम्बन्ध रखती है। पूजा में पूजक के मन में पूज्य के प्रति एक ऐसी सहज परिकल्पना या मनोभावना होती है कि मानो पूज्य मेरे सामने ही खड़े हैं, अतः यह आह्वाननादि के द्वारा 'ॐ ह्री.....अत्र अवतर-अवतर संवौषट्, अत्र तिष्ठ-तिष्ठ ठः ठः, अत्र मम सन्निहितो भव-भव वषट्' बोलकर उन्हें बुलाने, सम्मान सहित बिठाने तथा सन्निकट लाने की भावना भाता है, मनमन्दिर के सिंहासन पर बिठाकर पूज्य की पूजा-अर्चना करना चाहता है। जिनमन्दिर में तदाकार स्थापना के रूप में जिनप्रतिमा विद्यमान होती है। उसी एक तदाकार स्थापना में सभी पूज्य परमात्माओं की तदाकार परिकल्पना कर ली जाती है। ठोना में पुष्पों का क्षेपण तो केवल पुष्पांजलि अर्पण करना है। १. जैन निबन्ध रत्नावली : मिलापचन्द रतनलाल कटारिया, पृष्ठ २६५ 1000 जिनेन्द्र अर्चना पाँच अंगों का सामान्य अर्थ इसप्रकार है - (१) आह्वानन : पूज्य को बुलाने की मनोभावना। (२) स्थापन : बुलाये गये पूज्य को ससम्मान उच्चासन पर विराजमान करने की मनोभावना। (३) सन्निधिकरण : भावना के स्तर पर अत्यन्त भक्तिपूर्वक उच्चासन पर बिठाने पर भी तृप्ति न होने से अतिसन्निकट अर्थात् हृदय के सिंहासन पर बिठाने की तीव्र उत्कण्ठा या मनोभावना। (४) पूजन : पूजन वह क्रिया है, जिसमें भक्त भगवान की प्रतिमा के समक्ष अष्ट द्रव्य आदि विविध आलम्बनों द्वारा कभी तो उन अष्ट द्रव्यों को परमात्मा के गुणों के प्रतीक रूप देखता हुआ क्रमशः एक-एक द्रव्य का आलम्बन लेकर भगवान का गुणानुवाद करता है। कभी उन अष्टद्रव्यों को विषयों में अटकाने में निमित्तभूत भोगों का प्रतीक मानकर उन्हें भगवान के समक्ष त्यागने की भावना भाता है। कभी अनर्घ्य (अमूल्य) पद की प्राप्ति हेतु अर्घ्य (बहुमूल्य) सामग्री के रूप में पुण्य से प्राप्त सम्पूर्ण वैभव की समर्पणता करने को उत्सुक दिखाई देता है। भक्त की इसी क्रिया/प्रक्रिया को पूजन कहते हैं। विसर्जन : पूजा की समाप्ति पर पूजा के समय हुई द्रव्य एवं भाव सम्बन्धी त्रुटियों के लिए अत्यन्त विनम्र भावों से क्षमा-प्रार्थना के साथ भक्तिभाव प्रकट करते हुए पूज्य की चरण-शरण सदा प्राप्त रहे - ऐसी कामना करना विसर्जन है। * पर्याय की क्रमबद्धता की स्वीकृति में पुरुषार्थ का लोप नहीं, वरन् पर्याय के प्रति उदासीनता होने पर अक्षय चैतन्य की अनुभूति का सशक्त पुरुषार्थ जागृत होता है। जिनेन्द्र अर्चना /000000000 IIIIIIII.२१
SR No.008354
Book TitleJinendra Archana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bansal
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size552 KB
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