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________________ प्रथमानुयोग : प्रयोजन, विधान, पद्धति प्रयोजन :- प्रथमानुयोग अर्थात् कथा ग्रन्थों में संसार की विचित्रता, पुण्य-पाप का फल, महन्त पुरुषों की शुभाशुभ प्रवृत्ति आदि निरूपण से पुण्य-पाप से हटाकर संसारी-अज्ञानी जीवों को धर्म में लगाया जाता है। यद्यपि महन्त पुरुषों में राजाओं की सुख-दुःख की कथायें ही अधिक हैं; पर सर्वत्र प्रयोजन पाप को छुड़ाकर धर्म में लगाने का ही प्रगट करते हैं। पाठक पहले उन महन्त पुरुषों की कथाओं की जिज्ञासा से उन्हें पढ़ते हैं और फिर पाप को बुरा जान एवं धर्म को भला जान धर्म में रुचिवन्त होते हैं। जैसे - सुभटों की प्रशंसा जिसमें हो - ऐसे पुराण पुरुषों की कथा सुनने से सुभटपने में रुचि रखनेवालों के अति उत्साहवान होता है, उसीप्रकार धर्मात्माओं की प्रशंसा एवं पापियों की निन्दा जिसमें हो - ऐसे पुराण पुरुषों की कथायें सुनने से धर्म में अति उत्साहवान और पाप कार्यों में अरुचि होती है, इसप्रकार प्रथमानुयोग का प्रयोजन जानना। विधान :- प्रथमानुयोग में मूल कथायें तो जैसी हैं, वैसी ही निरूपित करते हैं तथा उनमें जो प्रसंगोपात्त व्याख्यान होते हैं, वह कोई तो ज्यों का त्यों होता है और कोई ग्रन्थकर्ता के विचारानुसार भी होता है, परन्तु प्रयोजन अन्यथा नहीं होता । जैसे - तीर्थंकरों के कल्याणकों में इन्द्र आये, यह बात तो यथार्थ है; किन्तु इन्द्र ने जिन शब्दों में स्तुति की थी, वैसा ही शास्त्र में निरूपण संभव नहीं है, अत: स्तुति आदि तो ग्रन्थकर्ता के विचारानुसार ही होती है।..... पद्धति :- प्रथमानुयोग में रस, छन्द और अलंकार शास्त्र की पद्धति मुख्य है तथा परोक्ष बातों को कुछ को बढ़ा-चढ़ाकर निरूपण करते हैं; किन्तु इसका प्रयोजन एकमात्र यह ही है कि जो शलाका पुरुष पहले संग्रामों और विषय भोगों में इतने अधिक रचे-पचे रहे, वे ही बाद में जब उन सबका त्याग करके मुनि हुए और मुक्त हुए तो हम लोग भी जो अभी तक पाप पंक में आकण्ठ डूबे हैं। अब इनका त्याग कर अपना कल्याण क्यों नहीं कर सकते ? कर सकते हैं - यह विश्वास दृढ़ होता है। -आधार, मो.मा. प्र. अ.-८, आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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