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________________ प्रतीति नहीं होती। हे अग्रज ! यदि आपको मेरे बल की परीक्षा करनी ही है तो मेरे इस पृथ्वी पर जमे पैर को ही हिला दीजिए।" श्रीकृष्ण तत्काल जरूरत से ज्यादा आत्मविश्वास में आकर कमर कसकर भुजबल से नेमिकुमार को जीतने की इच्छा से उठ खड़े हुए और उनका पैर हिलाने का प्रयत्न करने लगे; किन्तु पैर हिलाना तो दूर, पैर की एक उंगली भी नहीं हिला पाये । शरीर पसीना-पसीना हो गया, लम्बी-लम्बी सांसे निकलने लगीं। वे हाँफने लगे। अन्त में उन्होंने स्वीकार कर लिया कि नेमिनाथ का ही बल लोकोत्तर एवं आश्चर्यकारी है। उसीसमय इन्द्र का आसन कम्पायमान हो गया और उसने तत्काल देवों के साथ आकर अतुल्यबल के धारक श्री तीर्थंकर नेमिकुमार की स्तुति की और अपने स्थान चला गया। श्रीकृष्ण भी अपने राज्य के विषय में शंकित होते हुए अपने महल में चले गये। श्रीकृष्ण के मन में यह शंका घर कर गई कि नेमिकुमार के बल का कोई पार नहीं है, अत: इनके रहते हुए हमारा राज्य शासन स्थिर एवं निःशल्य रह सकेगा या नहीं ? उसीसमय से श्रीकृष्ण बाहरी व्यवहार में तो उत्तम अमूल्य गुणों से युक्त तीर्थंकर के जीव नेमिकुमार की आदरभाव से प्रतिदिन सेवा-सुश्रुषा करते हुए प्रेम प्रदर्शित करने लगे; पर मन में उस शल्य के निवारण का उपाय भी सोचने लगे, एतदर्थ उन्होंने अपनी पत्नियों को नेमिकुमार के साथ वसन्तोत्सव मनाने और उसके माध्यम से उनके विरागी मन में और अधिक वैराग्य उत्पन्न करने तथा उन्हें संसार के स्वार्थीपन का आभास कराने की ओर प्रेरित किया। मनुष्य की मनोवृत्ति को हरण करनेवाली श्रीकृष्ण की पत्नियाँ पति की आज्ञा पाकर वृक्षों और लताओं से युक्त रमणीय वनों में कुमार नेमि के साथ ऐसा अनुचित व्यवहार करने लगीं, ताकि संसार से उनका मन उचट जाये। यद्यपि कुमार नेमि स्वभाव से ही रागरूपी पराग से परान्मुख थे, तथापि श्रीकृष्ण की स्त्रियों के अनुरोध से वे उत्साह बिना बे-मन से जलाशय में जलक्रीड़ा करने लगे।
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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