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________________ २० सुनाया तो जरासंघ को कृष्ण पर बहुत क्रोध आया। जरासंघ ने अपने पुत्र कालयवन को उसका बदला लेने के लिए भेजा । कालयवन ने कृष्ण से सत्रह बार भयंकर युद्ध किया; परन्तु अन्त में वह कालयवन भी मारा गया। श्रीकृष्ण नारायण तो थे ही, वे अर्द्धचक्रवर्ती अर्थात् तीन खण्ड के अधिपति महाराजा भी थे। उनका || अपार वैभव था, वे परोपकारी भी थे, अत: लोकमान्य होने से भगवान की तरह पूजे जाते थे। उनकी एक दो नहीं अनेक रानियाँ थीं; उनके अधीनस्थ बड़े-बड़े राजा-महाराजा अपनी एक से बढ़कर एक कन्याओं का विवाह उनके साथ करके अपने को धन्य मानते थे। अनेक स्त्रियों को उन्होंने स्वयंवर के द्वारा, अनेकों पर आकर्षित होकर अपहरण करके वरा था। उस काल में राजा-महाराजाओं द्वारा अपनी शक्ति प्रदर्शन करके विवाह करना अन्याय-अनीति नहीं, बल्कि बहादुरी (वीरता) का प्रतीक माना जाता था। श्रीकृष्ण की प्रमुख रानियों में कुछ नाम इसप्रकार हैं - सत्यभामा, रुक्मणी, जाम्बवती, लक्ष्मणा, सुसीमा, गौरी, पद्मावती, गान्धारी आदि । श्रीकृष्ण का न केवल सम्पूर्ण जीवन; बल्कि जन्म और मृत्यु भी कर्मयोग का पाठ पढ़ाते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। उनके जीवन में जन्म से ही संघर्ष की शुरूआत हो गई, जन्म जेल में हुआ और मरण जंगल में। जन्म के समय कोई मंगलगीत वाला नहीं मिला और मरणसमय कोई पानी देनेवाला नहीं था। __ ये दोनों घटनायें हमें देश और राष्ट्रहित में संघर्ष करने की प्रेरणा देती है। जब नारायण जैसे शक्तिशाली और पुण्यवान जीव अपने जीवन-मरण और सुख-दुःख की परवाह किए बिना कर्मयोगी बनकर अपना जीवन जीते हैं तो और यदि हम अपने को उनका अनुयायी मानते हैं, कहते हैं तो हम भी उन जैसे कर्मयोगी बनें। __ और यदि संसार के कामों में रुचि नहीं है तो उन्हीं के चचेरे भाई तीर्थंकर नेमिनाथ के आदर्शों का अनुकरण करके संसार से मुँह मोड़ आत्मसाधना के अपूर्व पुरुषार्थ द्वारा पूर्णता प्राप्त कर मुक्ति के मार्ग की ओर अग्रसर हों, ज्ञान मार्ग की ओर अग्रसर हों। रास्ते सब खुले हैं, चुनाव अपने हाथ में है।
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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