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________________ P_ २२४| माँगी और कालसंवर ने पूर्ण संतुष्ट होकर प्रद्युम्न को जाने की आज्ञा दे दी। प्रद्युम्न नारदजी के साथ द्वारिका || | की ओर प्रस्थान कर गये। आकाश मार्ग में आते हुए जब दोनों हस्तिनापुर के पार कुछ आगे निकले तब एक सेना उन्हें दिखाई दी। सेना को देख प्रद्युम्न ने नारद से पूछा - "हे पूज्य ! यह अटवी के बीच बड़ी भारी सेना किसकी है ?" | उत्तर में नारदजी ने सुनाया - "एक हस्तिनापुर का कुरुवंशी दुर्योधन नाम का राजा है, एकबार उसने कृष्ण से प्रतिज्ञा की थी कि यदि मेरे कन्या होगी और आपकी रुक्मणी तथा सत्यभामा रानियों के पुत्र हुए तो जो पुत्र पहले होगा उसके लिए मैं अपनी कन्या दूँगा। संयोग से रुक्णमी के तुम और सत्यभामा के भानु साथ ही साथ हुए; परन्तु तुम्हारी खबर श्रीकृष्ण को पहले मिली, इसकारण तुम अग्रज घोषित किए गए और | भानु अनुज । तदनन्तर अकस्मात् कहीं जाता हुआ धूमकेतु नामक असुर तुम्हें हर ले गया, इसकारण तुम्हारी माँ रुक्मणी बहुत दुःखी और सत्यभामा संतुष्ट हुई । जब तुम्हारा कुछ समाचार नहीं मिला तो दुर्योधन ने अपनी उदधिकुमारी पुत्री को भानु के लिए देने की घोषणा की। तथा जोर से कहा कि - यह वही उदधिकुमारी कन्या है जो बड़ी भारी सेना से सुरक्षित हो द्वारिका को जा रही है तथा सत्यभामा के पुत्र भानु की स्त्री होनेवाली है।" __यह सुनकर प्रद्युम्न ने नारद को तो वहीं छोड़ा और स्वयं उसी क्षण नीचे उतरकर भील का वेश रखकर सेना को रोककर सामने खड़ा हो गया और बोला कि “श्रीकृष्ण महाराज ने मेरे लिए जो शुल्क देना निश्चित किया है, वह देकर जाइए।" भील के इसप्रकार कहने पर कुछ लोगों ने कहा - "माँग क्या चाहता है?" भील ने कहा - "इस समस्त क्षेत्र में जो वस्तु सबसे सारभूत हो वही चाहता हूँ।" लोगों ने क्रोधित होते हुए कहा - 'सेना में सारभूत तो कन्या है।' भील ने कहा - 'तो वह कन्या ही दे दीजिए। ॥ यह सुन लोगों ने कहा - 'तू श्रीकृष्ण की पैदाइश नहीं है, यह कन्या उसे दी जायेगी जो श्रीकृष्ण की || २२ संतान होगी।' FREFEEF
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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