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________________ के साथ खड़ा हो हाथ जोड़ मस्तक से लगा गद्गद् वाणी से कहने लगा - | "हे भगवन् ! आप सर्वज्ञ के समान हैं, यहाँ बैठे-बैठे ही तीनों लोकसम्बन्धी वस्तु के यथार्थ स्वरूप को जानते हैं। हे नाथ ! मेरा मनरूपी नेत्र अज्ञानमयी पटल से मलिन हो रहा था सो आज आपने उसे ज्ञानरूपी अंजन की सलाई से खोल दिया। महामोहरूपी अन्धकार से व्याप्त इस अनादि संसार-अटवी में भ्रमण करते हुए मुझे आपने सच्चा मार्ग दिखलाया है। इसलिए हे मुनिराज! आप ही मेरे बन्धु हैं। हे भगवन् ! मुझे दिगम्बरी दीक्षा दीजिए। इसप्रकार गुरु के निकट आ उस गूंगे किसान ने दिगम्बर दीक्षा धारण कर ली। उस किसान का यह चरित सुनकर तथा देखकर कितने ही लोग मुनिपद को प्राप्त हो गये और कितनों ने श्रावक के व्रत ग्रहण किए। अग्निभूति और वायुभूति अपने पूर्वभव की कथा सुन बड़े लज्जित हुए। वे सह न सके; क्योंकि उनकी होनहार ही भली नहीं थी। अत: उस समय तो वे चुपचाप चले गये । रात्रि के समय वे मुनिराज कहीं एकान्त में कायोत्सर्ग मुद्रा से स्थित थे, तब उन्हें अग्निभूति और वायुभूति तलवार हाथ में ले मारना ही चाहते थे कि यक्ष ने उन्हें कील दिया। जिससे वे तलवार उठाये हुए ज्यों के त्यों खड़े रह गये। प्रात:काल होने पर लोगों ने मुनिराज के पास खड़े हुए उन दोनों को देखा और ये वही निन्दित कार्य के करनेवाले पापी हैं। इसप्रकार कहकर उनकी निन्दा की। अग्निभूति, वायुभूति सोचने लगे कि देखो, मुनिराज का यह कितना भारी प्रभाव है कि जिनके द्वारा अनायास ही कीले जाकर हम दोनों खम्भे जैसी दशा को प्राप्त हुए हैं। उन्होंने मन में यह भी संकल्प किया कि यदि किसी तरह इस कष्ट से हम लोगों का छुटकारा होता है तो हम अवश्य ही जिनधर्म धारण करेंगे; क्योंकि उसकी सामर्थ्य हम इसतरह प्रत्यक्ष देख चुके हैं। उसीसमय उनका कष्ट सुन उनके माता-पिता शीघ्र दौड़े आये और मुनिराज के चरणों में गिरकर उन्हें प्रसन्न करने का उद्यम करने लगे। करुणा के धारक मुनिराज अपना योग समाप्त कर जब विराजमान हुए तब उन्होंने यह सब जिनशासन के सेवक देवों द्वारा किया जाकर उन्हें अभयदान देने का देवों को आदेश || || दिया और कहा यह इनका अनीति से उत्पन्न दोष क्षमा कर दिया जाये । इसप्रकार राजाओं की आज्ञा के ||१७
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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