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________________ १८५|| सत्यभामा के दूत पर पड़ी। तब सत्यभामा के दूत ने उन्हें प्रणाम कर सत्यभामा के पुत्रोत्पत्ति के समाचार || सुनाये। उसे भी श्रीकृष्ण ने पुरस्कार में प्रचुर धन दिया। उसीसमय धूमकेतु नामक राक्षस विमान में बैठकर आकाशमार्ग से जा रहा था कि उसका विमान रुक्मणी के महल पर आकर अचानक अटक गया, इससे उसने आश्चर्य में पड़कर नीचे देखा और अपने विभंग अवधि ज्ञान से जाना कि यह रुक्मणी से उत्पन्न हुआ बालक मेरा पूर्व जन्म का शत्रु है। इसी के कारण मेरा विमान अटक गया है। अत: उसने रुक्मणी को अपनी आसुरी शक्ति से अचेत कर उस बालक का अपहरण कर आकाश मार्ग में उड़ गया और सोचने लगा कि इसे किसतरह पीड़ित करके मारा जाय? अन्त में उसने सोचा - यह तत्काल का पैदा हुआ मांसपिण्ड ही तो है, इसे मार कर व्यर्थ का पाप कमाने से क्या लाभ ? इसे ऐसा ही एकान्त में बेसहारा छोड़ देने से यह अपनी मौत स्वतः ही मर जायेगा। बालक की आयु लम्बी थी, पुण्यशाली भी था। भली होनहारवाला जीव होने से उस असुर के विचार स्वतः ही बदल गये अत: उसने उसे जान से मारने के बजाय नीचे उतरकर एक तक्षशिला के नीचे रख दिया और वह असुर धूमकेतु तारा की भांति अदृश्य हो गया। संयोग से उसीसमय मेघकूट नगर का राजा कालसंवर अपनी रानी कनकमाला के साथ विहार करता हुआ विमान द्वारा आकाशमार्ग से वहीं उसी तक्षशिला के ऊपर पहुँचा। शिला के नीचे दबे बालक के पुण्यप्रभाव के निमित्त से उस राजा का विमान भी अटक गया। कालसंवर को भी आश्चर्य हुआ कि चलता विमान अचानक कैसे अटक गया ? नीचे उतरते ही उसे हिलती हुई एक मोटी शिला दिखी। शिला हटाकर जब उसने देखा कि इतनी विशाल वजनदार शिला के नीचे यह क्रीड़ा करता हुआ बालक ! न घायल हुआ है, न कोई अंग दबा है। कामदेव के समान सुन्दर बालक यह कौन है ? दया और प्रेम से अभिभूत हो कालसंवर राजा ने उस बालक को उठाकर अपनी पत्नी को सौंपते हुए कहा - तुम्हारे कोई संतान नहीं है। तुम्हारे सौभाग्य से ही मानो यह पुण्यशाली बालक तुम्हें प्राप्त हो गया है। अब तुम इसे अपना ही पुत्र मानो। ॥१९ FF REF
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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