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________________ । (१७९॥ फुआ ने रुक्मणी का अनुकूल अभिप्राय जान विश्वासपात्र व्यक्ति के हाथों एक पत्र द्वारा यह समाचार गुप्त रूप से श्रीकृष्ण के पास भेज दिया। पत्र में लिखा था कि - "हे कृष्ण ! रुक्मणी आप में अनुरक्त है आपके द्वारा वह अपना हरण चाहती है; यदि माघ शुक्ला अष्टमी के दिन आप इसका हरण करके ले जाते हैं तो यह निःसंदेह आपकी होगी; अन्यथा पिता और बाँधवजनों के द्वारा यह शिशुपाल के लिए दे दी जायेगी और उस दशा में यह जीवित नहीं रह सकेगी। यह उस दिन नागदेव की पूजा के बहाने आपको नगर के बाहर उद्यान में मिलेगी।" इधर कन्यादान की तैयारी करनेवाले राजा भीष्म के कहे अनुसार शिशुपाल चतुरंगणी सेना सहित कुण्डिनपुर जा पहुँचा । उधर नारद ने मौका देखकर एकान्त में कृष्ण को प्रेरित किया। प्रेरणा पाकर कृष्ण भी बलदेव के साथ गुप्तरूप से कुण्डिनपुर पहुँच गये। रुक्मणी नागदेव की पूजा के बहाने नगर के बाह्य उद्यान में पहले से ही तैयार खड़ी थी। कृष्ण ने उसे अच्छी तरह देखा। उन दोनों का अनुराग, जो अभी तक सुनने तक सीमित था, वह एक दूसरे को देखने से वायु से - प्रज्वलित अग्नि के समान वृद्धिंगत हो गया। ___ कृष्ण ने सामान्य औपचारिक चर्चा के बाद कहा - "हे भद्रे ! मैं तुम्हारे लिए ही आया हूँ और नारदजी द्वारा बताया जो चित्र तुम्हारे हृदय में अंकित है, वही मैं ही हूँ। यदि तूने सचमुच ही मुझमें अनुपम अनुराग लगा रखा है तो आओ, रथ पर सवार हो जाओ। फुआ ने कृष्ण की बात की अनुमोदना करते हुए जाने को प्रेरित किया और कहा - "हे भद्रे! जहाँ माता-पिता पुत्री के देनेवाले माने गये हैं, वहाँ वे कर्मों के अनुसार ही देनेवाले माने गये हैं, इसलिए सबसे बड़ा गुरु तो कर्म ही हैं।" तत्पश्चात् रुक्मणी का अनुकूल अभिप्राय जानकर श्रीकृष्ण ने अनुराग और लज्जा से युक्त रुक्मणी को दोनों भुजाओं से उठाकर रथ पर बैठा लिया। रुक्मणी का कृष्ण के साथ जो संयोग हुआ, उसने उनका पूर्वकृत कर्म ही प्रबल कारण था; क्योंकि उस कर्म ने पूर्वनिश्चय योजना के अनुसार आये हुए शिशुपाल को विमुख कर दिया था और अनायास आये कृष्ण को रुक्मणी के सन्मुख कर दिया था।
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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