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________________ जिसप्रकार जिनेन्द्र भगवान के द्वारा निरूपित शास्त्ररूपी समुद्र को देखकर भव्यजीव हर्षित होते हैं। उसीप्रकार समुद्र को देखकर वह राजाओं का समूह अत्यन्त प्रसन्न हुआ। समुद्र की एक-एक क्रिया मानों राजाओं के सम्मान में तत्पर थी। उससमय वह समुद्र बिखरी हुई पुष्पाजंलियों से सुशोभित हो रहा था। तरंगों से लहरा रहा था और शंखों से व्याप्त था। इसलिए ऐसा जान पड़ता था मानों भगवान नेमिनाथ के आगमन से उत्पन्न अत्यधिक हर्ष से ही उसने पुष्पाजंलियाँ बिखेरी हों । तरंग रूपी भुजाओं को ऊपर उठाकर वह नृत्य कर रहा हो और शंखध्वनि के बहाने हर्ष ध्वनि कर रहा हो। श्रीकृष्ण ने अपने बड़े भाई बलदेव के साथ स्थान प्राप्त करने की अभिलाषा से अष्टम भक्त - (तीन दिन का) उपवास किया तथा पंच परमेष्ठियों का स्तवन करने वाले धीर-वीर श्रीकृष्ण जब समुद्र के तट पर अपने नियम-संयम के कारण घास के आसन पर बैठे थे तब सौधर्म की आज्ञा से गौतम नामक शक्तिशाली देव ने आकर समुद्र को सुखा दिया । तदनन्तर श्रीकृष्ण के पुण्य प्रताप से और श्री नेमिकुमार के प्रति भक्ति विशेष से कुबेर ने वहाँ 'द्वारिका' नामक नगर बसा दिया। वह कुबेर द्वारा निर्मित कृत्रिम द्वारिका नगरी १२ योजन लम्बी, ९ योजन चौड़ी, वज्रमय कोट के घेरे में चारों ओर समुद्र की परिखा से घिरी थी। वह बड़ी बड़ी वापिकाओं, सरोवरों, बगीचों और उत्तमोत्तम फूल एवं फलवाले तथा सघन पल्लवों वाले वृक्षों से सुशोभित हो रही थी। वहाँ प्याऊओं और सदावर्त सदनों का प्रबन्ध था । चौड़ी-चौड़ी सड़कों से एवं ऊँचे-ऊँचे जिनमन्दिरों तथा महलों से नगर की शोभा दर्शनीय थी। उन सब महलों के बीच अठारह खण्डों वाला श्रीकृष्ण का सर्वतोभद्र महल था। श्रीकृष्ण के महल के चारों और अन्तःपुर एवं पुत्र आदि के योग्य महलों की पंक्तियाँ सुशोभित हो रहीं थीं। SEE OR OF
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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