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________________ खम्भा उखाड़ कर उसके बज्रतुल्य कठोर आघातों से उस सेना को क्षणभर में खदेड़ दिया। कंस के सहयोग | में नियुक्त जरासंघ की सेना ने ज्यों ही शक्तिशाली यादव लोगों की चंचल समुद्र के समान शब्द करनेवाली सेना को युद्ध के लिए सन्नद्ध देखा, त्यों ही उसकी समस्त सेना तितर-बितर हो गई। तदनन्तर मल्ल के वेष में ही दोनों भाई अनावृष्टि के साथ चार घोड़ों से रथ पर सवार होकर अपने पिता वसुदेव के पास गये। वहाँ समुद्रविजय आदि राजा तथा अन्य अनेक यदुवंशियों के समूह उपस्थित थे। वहाँ सभी पूज्य गुरुजनों का प्रणाम कर उनसे आशीर्वाद प्राप्त किया। कुबेर की उपमा को धारण करनेवाले वसुदेव और देवकी धीर-वीर पुत्र श्रीकृष्ण के मुख को देखकर अनुपम सुख को प्राप्त हुए। कंस ने जिसकी नाक चपटी कर दी थी, उस यशोदा की पुत्री-बहिन ने भी भाई को देख अनुपम आनन्द का अनुभव किया। ____कंस के पिता राजा उग्रसेन, जो अब तक पुत्र के द्वारा ही बन्धन में पड़े थे, अब वे कंस के बन्धन से मुक्त हो चुके थे और कृष्ण के द्वारा पुनः मथुरा के राजा बना दिये गये थे। सज्जन और बुद्धिमान राजाओं का यही कर्तव्य है, जो कृष्ण ने किया। इधर कंस का अन्तिम संस्कार हो चुका था। यादवों द्वारा कंस की मृत्यु के कारण उसकी विधवा पत्नी जीवद्यशा का यादवों पर कुपित होना तो स्वाभाविक ही था। पति के वियोग में रुदन करने से उसका गला रुंध गया था। वह अपने पिता जरासन्ध के पास पहुँची। वहाँ जाकर युदुवंशियों के द्वारा हुई पति कंस की मृत्यु एवं उसके परिवार की दुर्दशा का बखान करती हुई जोर-जोर से रुदन करने लगी तथा हाव-भावों द्वारा मानसिक पीड़ा की अभिव्यक्ति करके पिता जरासंध को क्षुभित कर दिया। कंस की विधवा पत्नी जीवद्यशा ने पिता की भावनाओं को उत्प्रेरित करते हुए कहा - हे पिताजी ! अबतक मैंने जो यह वैधव्य का दुःख || सहा है, वह वैर का बदला चुकाने हेतु गर्व से फूले यादवों के रक्त से पृथ्वी तल को लाल-लाल देखने की आशा से सहा है।
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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