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________________ १४५ ह 94. क्र. वं श क था पति वसुदेव के समझाने से देवकी भी अपनी संतान के वियोगजन्य दुःख को भूलकर धीरे-धीरे सामान्य हो गई । एक दिन देवकी ने रात्रि के अन्तिम प्रहर में अभ्युदय को सूचित करनेवाले सात पदार्थ स्वप्न में देखें । पहले स्वप्न में उसने अंधकार को नष्ट करनेवाला उगता सूर्य देखा। दूसरे स्वप्न में पूर्ण चन्द्रमा देखा। तीसरे | स्वप्न में हाथियों के द्वारा अभिषेक करती हुई लक्ष्मी देखी। चौथे स्वप्न में आकाश से नीचे उतरता हुआ | विमान देखा । पाँचवें स्वप्न में ज्वाला से युक्त अग्नि देखी। छठवें स्वप्न में ऊँचे आकाश में रत्नों की किरणों युक्त देवों की ध्वजा देखी और सातवें स्वप्न में अपने मुख में प्रवेश करता सिंह देखा । इन स्वप्नों को देखकर सौम्यवदना देवकी भय से कांपती हुई जाग उठी। अपूर्व और उत्तम स्वप्न देखने से विस्मय हो रहा था, जिसके शरीर में रोमांच हो रहा था - ऐसी देवकी ने जाकर पति से सब स्वप्न कहे और विद्वान पति राजा वसुदेव ने इसप्रकार उनका फल कहा - हे प्रिये ! तुम्हारे शीघ्र ही एक ऐसा पुत्र होगा की | जो समस्त पृथ्वी का स्वामी होगा। सूर्य का देखना- ऐसे प्रताप का प्रतीक है, जो शत्रुओं को नष्ट करेगा । चन्द्रमा का देखना - सबको प्रिय होने का प्रतीक है। अभिषेक होते लक्ष्मी का देखना - अत्यन्त सौभाग्यशाली और राज्याभिषेक का सूचक है। आकाश से नीचे आता हुआ विमान - स्वर्ग से अवतीर्ण तों | होने का सूचक है । प्रज्वलित अग्नि - कान्ति युक्त होने का प्रतीक है । देवों की ध्वजा - स्थिर स्वभाव वाला होने का प्रतीक है। मुख में प्रवेश करता सिंह- निर्भयता का सूचक है। सा to 44s 159 1 9 1 व पु त्र र इसप्रकार पति वसुदेव के द्वारा स्वप्नों के शुभ सूचक फलों को सुनकर देवकी अत्यधिक प्रसन्न हुई एवं अल्पकाल में ही जगत का हितकारी पुण्यवान देवकी के गर्भ में अवतरित हो गया। ज्यों-ज्यों गर्भ में बालक वृद्धि कर रहा था, त्यों-त्यों ही पृथ्वी पर मनुष्यों का सौमनस्य बढ़ता जा रहा था। साथ ही कंस का क्षोभ क्षि भी उत्तरोत्तर अनजाने में बढ़ रहा था। इसप्रकार वह प्रसव की प्रतीक्षा करता हुआ बहिन के गर्भ की भलीभांति देख-रेख करता हुआ उस पर नजर रखे था । त वैसे सब बालकों का नौ माह में प्रसव होता है; परन्तु होनहार के अनुसार कृष्ण श्रवण नक्षत्र में भाद्रमास १४
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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