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________________ ९८ आपके ध्यान में न हों। ऐसा कहकर उस वृद्धा विद्याधरी ने प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव से लेकर २१ वें तीर्थंकर ह | नमिनाथ तक की लम्बी परम्परा का संक्षिप्त परिचय देते हुए उस नीलयंशा से मिलने को किसी तरह उन्हें राजी रि | कर लिया । अन्त में वसुदेव और नीलयंशा का विवाह हो गया और वे दोनों बहुत काल तक सुखपूर्वक रहे । वं श क था कुमार वसुदेव की कथा को आगे बढ़ाते हुए कहा कि नीलयंशा के साथ रहते हुए कुमार वसुदेव कामदेव प्रतिहारी ने कहा - और रति के समान सुख का अनुभव कर रहे थे। एक दिन महल के ऊपर बैठे कुमार ने लोगों का भारी कोलाहल सुनकर निकट बैठी प्रतिहारी से पूछा " समस्त लोग किस कारण कोलाहल कर रहे हैं ?" "यह बड़ी अटपटी विचित्र कहानी है । आपके साथ शादी होने के पहले नीलयंशा | के पिता सिंहदंष्ट्र ने अपनी बेटी नीलयंशा को राजा नील के बेटे नीलकंठ को देने की बात तय कर ली थी । तदनुसार उसने यह एतराज किया है कि जब यह तय हो गया था कि यदि हमारे-तुम्हारे बीच एक के बेटा एवं दूसरे के बेटी होगी तो हम अपने बेटी-बेटा के साथ ही शादी करेंगे तो फिर यह वचन भंग क्यों हुआ ? इस बात का यह कोलाहल हो रहा है। नीलकंठ और सिंहदंष्ट्र के बीच साले - बहनोई का रिश्ता है, अत: उन्हें दक्षिण प्रान्तीय पूर्व परम्परानुसार बेटी माँगने का अधिकार बनता है । परन्तु सिंहदंष्ट्र ने | अमोघवादी बृहस्पति नामक मुनिराज के कथनानुसार अपनी कन्या आपके लिए दी है। इसकारण सिंहदंष्ट्र एवं नीलकंठ के विद्याधरों ने यह कल-कल शब्द किया है। बाद में वह तत्कालीन कोलाहल तो बन्द हो गया। कुमार वसुदेव और नीलयंशा बहुत काल तक परस्पर प्रेम से रहते हुए भौतिक सुख में मन भी रहे, किन्तु संसारी जीवों के सब दिन एक जैसे नहीं बीतते पुण्योदय कब पापोदय में पलट जाये, कोई नहीं कह सकता। किसी कवि ने कहा भी है 'सबै दिन जात न एक समान ।' अत: मानव को अनुकूलता के समय आत्महित में प्रवृत्त रहना योग्य है। वसुदेव के साथ यही हुआ । एक दिन रतिक्रीड़ा के बाद जब वह कदलीग्रह से बाहर निकले तो एक ऐसा मयूर देखा जो चित्र-विचित्र | शरीर सहित मनोहारी था तथा केकावाणी बोल रहा था । नीलयंशा उसे देखकर कौतुकवश उसे पकड़ने के 1 ) to 54 व द्वा बी स ती क र स्तु ति
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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