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________________ १९४ गुणस्थान विवेचन विशेष बढ़ाते हैं, वीतरागता उत्तरोत्तर पुष्ट होती जाती है, तब उसके निमित्त से पूर्वबद्ध चारित्रमोहनीय कर्म के स्पर्धक अपने आप स्थितिकाण्डकघात, अनुभागकाण्डकघात, संक्रमणादि होकर निरन्तर अकर्मरूप से परिणमित होते जाते हैं। इसी कार्य को “ध्यानरूपी अग्निशिखाओं ने कर्मवन को जला दिया" इन अलंकारिक शब्दों में आचार्यदेव ने कहा है। कार्मणवर्गणायें जीव के मोह-राग-द्वेष का निमित्त पाकर स्वयं कर्मरूप से पहले परिणमित हुई थीं। अब जीव के वीतरागभाव के निमित्त होने से कर्मरूप परिणमित कार्मणवर्गणायें स्वयमेव अकर्मरूप / कार्मणवर्गणारूप बदल रही हैं। अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के यथायोग्य अंतर्मुहूर्त काल के जितने समय हैं, इस गुणस्थानवर्ती महामुनिराज के परिणाम भी उतने ही हैं और उत्तरोत्तर विशिष्ट शुद्धता सहित हैं। प्रत्येक समय का एक-एक परिणाम सुनिश्चित है। समझ लीजिए नववें गुणस्थान का काल चार समय का है तो इसके परिणाम भी चार ही हैं। भरत क्षेत्र के एक तीर्थंकर मुनिराज हैं, एक ऐरावत क्षेत्र के ऋद्धिधारी मुनीश्वर हैं और एक विदेह क्षेत्र के सामान्य दिगंबर संत हैं- ये तीनों अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के प्रथम समय में प्रवेश करते हैं तो तीनों के परिणाम एक समान ही होते हैं। दूसरे, तीसरे, अथवा चौथे समय में भी उन तीनों के परिणाम प्रत्येक समय के परस्पर समान समान ही होते हैं। मानो इन सब साधक भव्यात्माओं ने अपने सहज ज्ञानानंद एक सामान्य स्वभाव का आश्रय लेकर अनन्त सिद्धों के समान होने के लिए ही मंगलाचरण किया हो । नौवें गुणस्थान का पूर्णनाम “अनिवृत्तिकरण - बादरसांपराय-प्रविष्ट -शुद्धिसंयत" है। भेद अपेक्षा विचार श्रेणी की अपेक्षा इसके तत्संबंधी दो भेद हैं - उपशमक अनिवृत्तिकरण और क्षपक अनिवृत्तिकरण । अनिवृत्तिकरण गुणस्थान १. मुनिराज के जिस वीतराग परिणाम के निमित्त से चारित्रमोहनीय कर्म की २१ प्रकृतियों के उपशमन के कार्य की तैयारी अपूर्वकरण गुणस्थान के प्रथम समय से प्रारम्भ होती है और तदनन्तर नववें गुणस्थान के अंतिम समय पर्यंत मात्र सूक्ष्म लोभ कषाय को छोड़कर २० कषायों एवं समग्र नोकषायों का पूर्ण उपशम हो जाता है; उस वीतराग परिणाम को उपशमक अनिवृत्तिकरण गुणस्थान कहते हैं। १९५ २. मुनिराज के जिस वीतराग परिणाम के निमित्त से चारित्र मोहनीय कर्म की २१ प्रकृतियों के क्षय के कार्य की तैयारी आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान के प्रथम समय से प्रारम्भ होती है और तदनन्तर नववे गुणस्थान के अंतिम समय पर्यंत मात्र सूक्ष्म लोभकषाय को छोड़कर ११ कषायों एवं ९ नोकषायों का पूर्ण क्षय हो जाता है; उस वीतराग परिणाम को क्षपक अनिवृत्तिकरण गुणस्थान कहते हैं। अनिवृत्तिकरण बादरसांपराय प्रविष्ट शुद्धिसंयत का स्पष्टीकरण शब्दार्थ - अ + निवृत्ति = अनिवृत्ति । अ = नहीं । निवृत्ति = भेद, करण = परिणाम | अनिवृत्तिकरण = भेदरहित, सुनिश्चित समान परिणाम । - बादर = स्थूल | सांपराय = कषाय । प्रविष्ट = प्रवेश प्राप्त | शुद्धि = शुद्धोपयोग । संयत = शुद्धात्मस्वरूप में सम्यक्तया लीन । चारित्रमोहनीय कर्म की २१ प्रकृतियों के उपशम तथा क्षय में निमित्त होनेवाले संज्वलन कषाय के मंदतम उदयरूप स्थूल कषाय के सद्भाव में सुनिश्चित उत्तरोत्तर विशिष्ट वृद्धिंगत, स्वरूपलीन शुद्धोपयोग परिणाम युक्त जीव अनिवृत्तिकरणबादरसांपरायप्रविष्टशुद्धिसंयत है । सम्यक्त्व अपेक्षा विचार - द्वितीयोपशम और क्षायिक सम्यक्त्व इन दोनों सम्यक्त्वों में से यहाँ एक सम्यक्त्व रहता है। यदि मुनिराज उपशमक अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवर्ती हों तो उन्हें द्वितीयोपशम सम्यक्त्व और क्षायिक सम्यक्त्व इन दोनों में से कोई एक सम्यक्त्व रहता है। यदि मुनिराज क्षपक अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवाले हों तो उन्हें क्षायिक सम्यक्त्व ही रहता है।
SR No.008350
Book TitleGunsthan Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size649 KB
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