SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 97
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११२ अनिवृत्तिकरण गुणस्थान गुणस्थान विवेचन वीतरागता और अन्य जितने भी नौवें गुणस्थान के प्रथम समयवर्ती मुनिराज हैं - उन सब की वीतरागता समान ही होती है। इसीतरह १०वें, ११वें, १२, १३, १४वें गुणस्थानवर्ती साधकों की अपने-अपने गुणस्थानों में वीतरागता, सुख आदि की परस्पर में समानता ही रहती है। इसी विषय का खुलासा धवला पुस्तक १, पृष्ठ १८७-१८८ पर निम्नप्रकार दिया है २६. "शंका -क्षपक का स्वतन्त्र गुणस्थान और उपशम का स्वतन्त्र गुणस्थान, इसतरह अलग-अलग दो गुणस्थान क्यों नहीं कहे गये हैं ? समाधान - नहीं; क्योंकि इस गुणस्थान के कारणभूत अनिवृत्तिरूप परिणामों की समानता दिखाने के लिये उन दोनों में एकता कही है। अर्थात् उपशमक और क्षपक इन दोनों में अनिवृत्तिरूप परिणामों की अपेक्षा समानता है। कहा भी है - अन्तर्मुहूर्तमात्र अनिवृत्तिकरण के काल में से किसी एक समय में रहनेवाले अनेक जीव जिसप्रकार शरीर के आकार, वर्ण आदि रूप से परस्पर भेद को प्राप्त होते हैं; उसीप्रकार जिन परिणामों के द्वारा उनमें भेद नहीं पाया जाता है, उनको अनिवृत्तिकरण परिणामवाले कहते हैं और उनके प्रत्येक समय में उत्तरोत्तर अनन्तगुणी विशुद्धि से बढ़ते हुए एक से ही (समान विशुद्धि को लिये हुए) परिणाम पाये जाते हैं। तथा वे अत्यन्त निर्मल ध्यानरूप अग्नि की शिखाओं से कर्म-वन को भस्म करनेवाले होते हैं।" ८२. प्रश्न : घाति-अघाति कर्मोदय से औदयिक तथा क्षायोपशमिक भावों में भेद हो सकता है, यह कैसे? उत्तर : अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवर्ती अनेक मुनिराजों का शरीर छोटा, बड़ा, पतला या मोटा हो सकता है। उन मुनीश्वरों के शरीर का वर्ण काला, गोरा हो सकता है। वे मुनिराज उम्र की दृष्टि से युवा अथवा वृद्ध भी होते हैं। उन मुनिराजों के औदयिक भाव ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय कमों के क्षयोपशमानुसार वर्तमान ज्ञान के विकास में परस्पर अंतर भी हो सकता है अर्थात् उनमें कोई दो ज्ञानधारी, कोई तीन ज्ञानधारी अथवा कोई चार ज्ञानधारी भी हो सकते हैं । ग्यारह अंग और चौदह पूर्व के धारक श्रुतकेवली-रूप महान ज्ञानी अथवा मात्र अष्ट प्रवचनमातृका को जाननेवाले अत्यल्प ज्ञान के धारकपने से अनिवत्तिकरण के धर्मरूप परिणामों की समानता में कुछ भी भेद या अंतर नहीं होता। ___ आचार्य श्री नेमिचन्द्र ने गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ५७ में अनिवृत्तिकरण गुणस्थान की परिभाषा निम्नानुसार दी है - होंति अणियट्टिणो ते, पडिसमयं जेस्सिमेक्कपरिणामा। विमलयरझाणहुयवहसिहाहिं गिद्दड्ढकम्मवणा || अत्यंत निर्मल ध्यानरूपी अग्नि शिखाओं के द्वारा, कर्म-वन को दग्ध करने में समर्थ, प्रत्येक समय के एक-एक सुनिश्चित वृद्धिंगत वीतराग परिणामों को अनिवृत्तिकरण गुणस्थान कहते हैं। वृद्धिंगत शुद्धोपयोगरूप ध्यान का प्रारंभ सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान से हुआ है। अतः नौवें गुणस्थान में ध्यान अत्यन्त निर्मल होना स्वाभाविक ही है। ध्यान को अग्नि की नहीं, अग्नि-शिखाओं की उपमा दी है, जो अत्यन्त उपयुक्त है। अग्नि में तो उष्णता होती है; लेकिन दाह्य वस्तु को विशेष रीति से जलाने का काम अग्नि की शिखा ही करती है। शिखा अग्नि के मानो हाथ हैं। दाह्य वस्तु को अपने कब्जे में लेने का काम शिखाओं द्वारा ही होता है। तदनंतर दाह्य वस्तु को अग्नि जलाती है। अष्ट कर्मों में मुख्यता से चारित्रमोहनीय कर्म को वन कहा है, जिसको निर्मल ध्यानरूपी अग्निशिखा जलाती है। वास्तव में तो यह मात्र निमित्त-नैमित्तिक संबंध की अपेक्षा असद्भूत व्यवहारनय से कथन करने की पद्धति है। सत्य वस्तुस्थिति तो यह है कि जब महामुनिराज अन्तरोन्मुखी पुरुषार्थ के बल से वीतरागभाव को
SR No.008350
Book TitleGunsthan Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size649 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy