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________________ १७० गुणस्थान विवेचन यहाँ अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में तो प्रति समय अनंतगुणी वीतरागता बढ़ती ही जाती है। यदि सातिशय अप्रमत्तसंयत मुनिराज के यथायोग्य मात्र एक अंतर्मुहूर्त काल के असंख्यात समयों में समय-समय प्रति अनंतगुणी वीतरागता बढ़ती जाती है तो वह वीतरागता आगे कितनी बढ़ सकती है, इसका सामान्य बोध हमें आगम प्रमाण से हो जाता है। अनंत का प्रत्यक्ष ज्ञान तो मात्र सर्वज्ञ भगवान को ही होता है। वीतरागता के अनंतगुणी वृद्धि का एवं कषाय के उत्तरोत्तर हानी/हीन हीन होने का यह क्रम जीव जब जक पूर्ण वीतरागतारूप नहीं परिणमता है तब तक अर्थात् ११वें या १२ वें गुणस्थान पर्यंत लगातार चलता ही रहता है। इसके फलस्वरूप स्वभाव में विशेष मग्नता और प्रचुर अतीन्द्रिय आनन्द का भोग मुनिप्रवर करते रहते हैं। ६५. प्रश्न : बारहवें गुणस्थान से आगे वीतरागता में अनंतगुणी वृद्धि क्यों नहीं होती? उत्तर : बारहवें गुणस्थान के प्रथम समय में ही वीतरागता परिपूर्ण प्रगट हो गयी है तो अब आगे बढ़ने के लिए कुछ अवकाश बचा ही नहीं है । अत: पूर्ण वीतराग होने पर अनंतगुणी विशुद्धिरूप पूर्ण वीतरागता सतत अखंड और अविचलरूप से अनन्तकालपर्यंत बनी ही रहती है। ६६. प्रश्न : स्थितिबंध किसे कहते हैं ? उत्तर : ज्ञानावरणादि कर्मरूप परिणमित पुद्गल स्कंधों का आत्मप्रदेशों के साथ एकक्षेत्रावगाह स्थितिरूप कालावधि के बंधन को स्थितिबंध कहते हैं। २. स्थितिबंधापसरण होता है। प्रत्येक संसारी जीव को अपनीअपनी भूमिकानुसार मोह-राग-द्वेष परिणामों के निमित्त से प्रत्येक समय में नया कर्म का बंध होता ही रहता है। इस सातिशय अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती मुनिराज को विपरीत मान्यतारूप मिथ्यात्व तो है ही नहीं। वह तो चौथे गुणस्थान से ही नहीं रहता। अत: दर्शनमोहनीय के निमित्त से तो नया कर्मबंध होता ही नहीं। अप्रमत्तविरत गुणस्थान अप्रमत्तसंयत मुनिराज के राग-द्वेष परिणाम भी अत्यंत हीन हो गये हैं। अगले अंतर्मुहूर्त से तो ये मुनिराज श्रेणी पर ही आरूढ़ होनेवाले हैं तथा वर्तमान काल में वीतरागता समय-समय प्रति बढ़ ही रही है। अत: नया होनेवाला कर्मबंध उत्तरोत्तर कम स्थिति लेकर बंधता रहता है, इसे ही स्थितिबंधापसरण कहते हैं। जैसे किसी को पहले अंतर्मुहूर्त में सौ वर्ष के कर्म का स्थितिबंध हुआ था। उसे ही दूसरे अंतर्मुहूर्त में ९० वर्ष का स्थितिबंध होता है। तीसरे अंतर्मुहर्त में ८० वर्ष का स्थितिबंध होता है। चौथे अंतर्मुहर्त में ७० वर्ष का। इसतरह नये कर्म का स्थितिबंध कम कालावधि का ही होता रहता है; उसे स्थिति-बंधापसरण कहते हैं। कर्मबंध में जीव का राग-द्वेष भाव, निमित्त मात्र है और नया कर्म बंध स्वयमेव अपने कारण से हीन स्थितिवाला बंधता जाता है। इसमें सातिशय अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती मुनिराज का बुद्धिपूर्वक कुछ कर्तव्य नहीं है। इसलिए सर्वज्ञ कथित सहज निमित्त-नैमित्तिक संबंध समझना बहुत महत्त्वपूर्ण है। ___ आचार्य अमृतचंद्र के पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, श्लोक १२ में यह विषय अत्यंत स्पष्ट रीति से आया है, जो इसप्रकार है - जीव के किये हए रागादि परिणामों का मात्र निमित्त पाकर कार्माण वर्गणाओं के पुद्गल स्कंध आत्मा में अपने आप ही ज्ञानावरणादि कर्मरूप परिणमन कर जाते हैं। ६७. प्रश्न : निमित्त-नैमित्तिक संबंध किसे कहते हैं ? उत्तर : जब उपादान स्वत: कार्यरूप परिणमता है. तब भावरूप या अभावरूप किस उचित (योग्य) निमित्त कारण का उसके साथ सम्बन्ध है - यह बताने के लिए उस कार्य को नैमित्तिक कहते हैं। इस तरह से भिन्न पदार्थों के इस स्वतन्त्र सम्बन्ध को निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध कहते हैं। निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध परतन्त्रता का सूचक नहीं है, किन्तु नैमित्तिक के साथ कौन निमित्तरूप पदार्थ है; उसका ज्ञान कराता है। जिस कार्य को निमित्त की अपेक्षा नैमित्तिक कहा है, उसी को उपादान की अपेक्षा उपादेय भी कहते हैं । (यह संबंध दो द्रव्यों - उपादान एवं निमित्त की एक समयवर्ती वर्तमानकाल की पर्यायों में ही बनता है।)
SR No.008350
Book TitleGunsthan Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size649 KB
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