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________________ १६४ गुणस्थान विवेचन __अप्रमत्तसंयत से लेकर सूक्ष्मसांपराय पर्यंत के चारों गुणस्थानों में होनेवाले अबुद्धिपूर्वक-विभाव भाव साधक की अपनी बुद्धि द्वारा पकड़ में नहीं आते अर्थात् उनके ज्ञान में स्पष्ट ज्ञेय नहीं बनते हैं; क्योंकि वे केवलज्ञानगम्य सूक्ष्म भाव हैं। आचार्यश्री नेमिचन्द्र ने ही गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ४६ में स्वस्थान अप्रमत्त गुणस्थान की ध्यान की मुख्यता से भेदसहित परिभाषा निम्नानुसार भी दी है, जो विशेष महत्त्वपूर्ण है - णट्ठासेसप्रमादो वयगुणसीलोलिमंडिओ णाणी। अणुवसमओ अखवओ झाणणिलीणो हु अपमत्तो।। जिनके व्यक्त और अव्यक्त सभी प्रकार के प्रमाद नष्ट हो गये हैं; जो व्रत, गुण और शीलों से मंडित हैं, जो निरंतर आत्मा और शरीर के भेदविज्ञान से युक्त हैं, जो उपशम और क्षपक श्रेणी पर आरूढ नहीं हुए हैं और जो ध्यान में लवलीन हैं; उन्हें अप्रमत्तसंयत कहते हैं। इस गाथा से स्पष्ट है कि सातवें गुणस्थान में मुनिराज को नियम से ध्यान होता ही है, जिसे शुद्धोपयोग नाम से भी कह सकते हैं। कदाचित् इसी को धर्मध्यान आदि नाम से अन्यत्र कहा गया हो तो हमें भ्रमित होने की आवश्यकता नहीं है। नाम तो अन्य हो सकते हैं; लेकिन सातवाँ गुणस्थान ध्यानावस्था का है, यह निर्णयरूप से हमें समझना चाहिए। भेद अपेक्षा विचार - सातवें गुणस्थान के दो भेद हैं- १.स्वस्थान अप्रमत्त, २.सातिशय अप्रमत्त। १. स्वस्थान अप्रमत्त (निरतिशय अप्रमत्त) १.सर्वप्रमाद नाशक, व्रत-गुण-शीलों से सहित अनुपशमक-अक्षपक ध्यान में लीन मुनिदशा स्वस्थान अप्रमत्त है। २. जिस अप्रमत्तसंयत गुणस्थान से मुनिराज नियम से छठवें प्रमत्तसंयत गुणस्थान में जाते हैं, उस अप्रमत्तसंयत गुणस्थान को स्वस्थान या निरतिशय अप्रमत्त कहते हैं। अप्रमत्तविरत गुणस्थान ३. भावलिंगी मुनिराज सातवें-छठवें और छठवें-सातवें गुणस्थान में सतत गमनागमन करते ही रहते हैं/झूलते ही रहते हैं। ऐसे काल में उन्हें प्राप्त होनेवाले अप्रमत्तसंयत गुणस्थान को स्वस्थान या निरतिशय अप्रमत्त कहते हैं। २.सातिशय अप्रमत्तसंयत - १. चारित्रमोहनीय कर्म की २१ प्रकृतियाँ (अप्रत्याख्यानावरण ४, प्रत्याख्यानावरण ४, संज्वलन ४ और हास्यादि ९ नोकषाय) के उपशम तथा क्षय में निमित्त अध:करणादि तीन करणों में से प्रथम अध:प्रवृत्तकरण दशा सातिशय अप्रमत्तसंयत है। २. जिस अप्रमत्तसंयत गुणस्थान से विशेष पुरुषार्थी मुनिराज नियम से छठवें प्रमत्तसंयत गणस्थान में नीचे आते ही नहीं, उस अप्रमत्त दशा को सातिशय अप्रमत्तसंयत कहते हैं। ३. जिस अप्रमत्तसंयत गुणस्थान से विशेष पुरुषार्थी मुनिराज नियम से प्रमत्तसंयत में न जाकर ऊपर अपूर्वकरण गुणस्थान में ही जाते हैं अर्थात् श्रेणी पर आरूढ़ होते हैं, उसे सातिशय अप्रमत्तसंयत कहते हैं। श्रेणी तो आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान से ही प्रारंभ होती है; तथापि श्रेणी की पूर्व तैयारी सातिशय अप्रमत्तविरत गुणस्थान में ही होती है। अप्रमत्त का स्पष्टीकरण - ___ पूर्वोक्त विकथादि पंद्रह प्रमादों की अभावरूप दशा अर्थात् शुद्धोपयोगरूप अवस्था को ही अप्रमत्तसंयत गुणस्थान कहते हैं। अप्रमत्त दशा कहो अथवा प्रचुर आत्मानंद की दशा कहो - दोनों का एक ही अर्थ है। प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती मुनिजीवन की अपेक्षा इस अप्रमत्तसंयत/ आत्मलीनतारूप अवस्था को सावधान अवस्था कहते हैं। जिनागम की रचना करना, धर्मोपदेश देना, स्वयं दीक्षार्थी पात्र श्रावकों को मुनिदीक्षा देना आदि कार्य करना मुनि के लिए छठवें गुणस्थान की प्रमाद दशा है। ___ केवलीप्रणीत वीतराग धर्म महान अद्भुत और आश्चर्यकारी है। जिन-जिन विषयों को सर्व जगत सर्वोत्तम मानता है /कहता है; उन्हीं
SR No.008350
Book TitleGunsthan Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size649 KB
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