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________________ अप्रमत्तविरत गुणस्थान सातवें गुणस्थान का नाम अप्रमत्तसंयत है; यह गुणस्थान ध्यानस्थ मुनिराज का है। विचार किया जाय तो वास्तविक मुनिजीवन का प्रथम गुणस्थान तो अप्रमत्तसंयत ही है; क्योंकि प्रमत्तसंयत गुणस्थान तो अप्रमत्तसंयत से नीचे गिरने के बाद प्राप्त होता है। जब कोई भी साधक भावलिंगी मुनिराज हो जाता है, तब मिथ्यात्व, अविरतसम्यक्त्व अथवा देशविरत गुणस्थान से सीधे इस अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में आकर ही होता है। इस विवक्षा की मुख्यता से अथवा प्रवचनसार ग्रंथ की चरणानुयोग चूलिका की दृष्टि से मोक्षमार्गप्रकाशक के प्रथम अध्याय में साधु के स्वरूप का विवेचन करते समय पृष्ठ तीन पर आया है - जो विरागी होकर, समस्त परिग्रह का त्याग करके शुद्धोपयोगरूप मुनिधर्म अंगीकार करके....। __यहाँ शुद्धोपयोग की प्रमुखता से अप्रमत्तसंयत गुणस्थान को ही समझना चाहिए। श्रेणी आरोहण की तैयारी अर्थात् अपूर्व और अलौकिक पुरुषार्थ सातवें की सातिशय अप्रमत्त दशा में ही होता है। आचार्यश्री अमृतचंद्र और आचार्यश्री जयसेन प्रवचनसार गाथा क्रमांक ७९ की टीका में इस शुद्धोपयोग को ही अथवा अप्रमत्तसंयत गुणस्थान को परम-उपेक्षा लक्षण परमसामायिक कहते हैं। मुनिराज की प्रतिज्ञा और आन्तरिक भावना तो शुद्धोपयोगरूप अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में ही रहने की होती है; परन्तु पुरुषार्थ की कमजोरीवश उन्हें प्रमत्तविरत गुणस्थान में आना पड़ता है। आचार्य श्री नेमिचन्द्र ने गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ४५ में अप्रमत्तसंयत गुणस्थान की कर्मोदय सापेक्ष परिभाषा निम्नानुसार दी है - अप्रमत्तविरत गुणस्थान संजलणणोकसायाणुदओ, मंदो जदा तदा होदि। अपमत्तगुणो तेण य, अपमत्तो संजदो होदि। संज्वलन कषाय तथा नौ नोकषायों के मंद उदय के समय में अर्थात् निमित्त से प्रमादरहित होनेवाली वीतरागदशा को अप्रमत्तसंयत गुणस्थान कहते है। यहाँ ध्यानावस्था है, शुद्धोपयोग है। इसलिए व्यवहार सकलसंयम पालने का शुभविकल्प नहीं हो सकता। मुनिराज बुद्धिपूर्वक तो निज शुद्धात्मा में मग्न हैं। इस कारण ध्यानजन्य आत्मानंद का रसपान करते रहते हैं। ___अप्रमत्तविरत गुणस्थान में संज्वलन देशघाति कषाय कर्म और हास्यादि नौ नोकषाय कर्मों का मंद उदय है; जो मुनिराज को प्रमादभाव उत्पन्न करने में समर्थ नहीं है; परन्तु आत्मा में अबुद्धिपूर्वक विभाव परिणाम का अस्तित्त्व बना रहता है। इन परिणामों के निमित्त से हीन स्थिति-अनुभाग वाला नया कर्मबंध भी नियम से होता ही है। संज्वलनजन्य मंद विभाव परिणाम और तीन कषाय चौकड़ी के अनुदयपूर्वक उत्पन्न वीतराग परिणाम - इन दोनों की मिश्र दशा को अप्रमत्तसंयत गुणस्थान कहते हैं। वीतरागता व राग-द्वेष दोनों चारित्र गुण की पर्यायें हैं। मोह व योग के निमित्तसे आत्मा के श्रद्धा वचारित्रगुणों में होनेवाली तारतम्यरूपअवस्थाओं को गुणस्थान कहते हैं । मात्र वीतराग परिणामों को अप्रमत्त गुणस्थान नहीं कहा । सप्तम गुणस्थान में स्थित मुनिराज मात्र वीतराग परिणामों के धारक नहीं हैं। उन्हें कषाय-नोकषाय कर्मों के मंद उदय के निमित्त से अबुद्धिपूर्वक मंद राग-द्वेष परिणाम भी धारावाहीरूप से चलते ही रहते हैं। मुनिराज राग-द्वेष परिणामों का बुद्धिपूर्वक अनुभव भले न करते हों - त्रिकाली निज शुद्धात्मा का ही अनुभव करते हों; लेकिन साधक अवस्था होने के कारण आत्मपरिणामों में विभाव भावों का सद्भाव है और उनके निमित्तभूत कर्मों की सत्ता और उदय भी है। संज्वलन कषाय-नोकषायों के मंद परिणामों के निमित्त से यथायोग्य नया कर्मबंध भी होता है।
SR No.008350
Book TitleGunsthan Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size649 KB
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