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________________ चैतन्य चमत्कार उपाध्याय, साधु ही हैं। हमसे लोग अध्यात्म सुनते हैं, सीखते हैं, सो गुरुदेव कहते हैं। प्रश्न : तो आपको गुरुदेव विद्या-गुरु के अर्थ में कहा जाता है, देव-शास्त्र-गुरु के अर्थ में नहीं ? उत्तर : हाँ, हाँ, यही बात है। भाई ! हम तो कई बार कहते हैं कि वस्त्रादिरखे और अपने को देव-शास्त्र-गुरु वाला गुरु माने, मनवावे, वह तो अज्ञानी है। अधिक हम क्या कहे ? प्रश्न : अभी जब साधुओं की चर्चा आई तो आपने कुन्दकुन्द का, अमृतचन्द्र का नाम लिया, तो क्या आप अकेले कुन्दकुन्द और अमृतचन्द्र को ही सच्चा साधु मानते हैं, प्रामाणिक मानते हैं, और आचार्यों को नहीं ? उत्तर : कैसी बातें करते हो ? हम तो सभी वीतरागी सन्तों को मानते हैं। सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमीचन्द्र, भूतबलि, पुष्पदन्त, समन्तभद्र, उमास्वामी, अकलंक, पद्मप्रभमलधारि देव, जयसेनाचार्य आदि सभी मुनिराज आचार्य भगवन्त पूज्य हैं, सम्माननीय हैं। अरे भाई ! आचार्यों को ही क्या, हम तो पण्डित बनारसीदासजी, टोडरमलजी, जयचन्दजी, दौलतरामजी आदि महान पण्डितों के शास्त्रों को पूर्ण प्रामाणिक मानते हैं। प्रश्न : मानते होंगे, पर आप पढ़ते तो समयसार ही हैं, अन्य ग्रन्थ नहीं ? चैतन्य चमत्कार उत्तर : कौन कहता है? हमने सभी शास्त्रों का अनेक बार स्वाध्याय किया है। दिगम्बर शास्त्रों का तो दोहन किया ही है, श्वेताम्बरों के भी लाखों श्लोक पढ़े हैं। समयसार में ही हमारी भक्ति अधिक है। उसका कारण तो यह है कि हमें वि. सं. १९७८ में समयसार हाथ लगा और हमने जब उसका अध्ययन किया तो हमारी आँखें खुल गईं, हमें लगा कि अशरीरी होने का तो यह शास्त्र है। समयसार ने हमारा जीवन बदल डाला, अत: उसके प्रति हमारी विशेष भक्ति होना स्वाभाविक है। समयसार १७ बार तो हमने सभा में पढ़ा है, वैसे तो सैकड़ों बार उसका दोहन किया है। भाई ! अपूर्व शास्त्र है, अपूर्व है उसकी महिमा ! हम कहाँ तक गायें, जितनी कहें थोड़ी है। प्रश्न : हमारा कहना तो यह है कि आपने स्वाध्याय चाहे सैकड़ों शास्त्रों का किया हो, पर सभा में तो समयसार ही पढ़ते हैं, अन्य ग्रन्थ नहीं। उत्तर : कौन कहता है ? हमने सभा में प्रवचनसार, नियमसार, पंचास्तिकाय, अष्टपाहुड़. बीच में ही टोकते हुए जब मैंने कहा कि - ये सब ग्रन्थ तो आचार्य कुन्दकुन्द के ही हैं। तब रोकते हुए बोले - सुनो तो। सभा में धवला भी
SR No.008346
Book TitleChaitanya Chamatkar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages38
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size204 KB
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