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________________ चैतन्य चमत्कार हुए गुरुदेव बोले कि क्षुल्लक धर्मदासजी ने अपने ग्रन्थों में बड़े ही मर्म की बातें लिखी हैं। उनकी भाषा जरूर सादी है, पर भाव गम्भीर है; किन्तु ऐसा नहीं कि समझ में ही नहीं आए। समझने की कोशिश करें तो सब समझ में आ सकता है। पर जिन्हें समझना ही नहीं, लड़ना है; उन्हें कौन समझाए? प्रश्न : ऐसा न भी लिखते तो क्या हो जाता? उत्तर : उसका उत्तर तो क्षुल्लकजी ही दे सकते हैं। प्रश्न : ठीक है, तो आप इसे सम्यग्ज्ञानदीपिका में से निकलवा दीजिए? ___ उत्तर : यह काम हमारा नहीं है। किसी आचार्य या विद्वान् के शास्त्र में कुछ परिवर्तन करना हम उचित नहीं मानते । और किसी को अधिकार भी क्या किसी शास्त्र में से कुछ निकालने का ? इसप्रकार के उदाहरण तो अनेक शास्त्रों में आते हैं। कहाँ-कहाँ से क्या-क्या निकालोगे? अरे भाई ! ज्ञानियों के कथन का मर्म समझना पड़ेगा, उसमें बदला-बदली से काम नहीं चलेगा। और दृष्टान्त तो एकदेश होता है, उसे सर्वांश घटित नहीं करना चाहिए । तथा दृष्टान्त किसी सिद्धान्त को समझाने के लिए दिया जाता है; अत: उसके द्वारा जो सिद्धान्त समझाया गया हो, उसे समझने की कोशिश करना चाहिए। दृष्टान्तों में नहीं उलझना चाहिए। सम्यग्ज्ञानदीपिका 'समयसार कलश' के १५० वें कलश में लिखा है - 'ज्ञानिन् भुंक्ष्व परापराधजनितो नास्तीह बंधस्तव।' - हे ज्ञानी ! तू कर्म के उदयजनित उपभोग को भोग । तेरे पर के अपराध कर उत्पन्न हुआ ऐसा बंध नहीं है। तो क्या समयसार में से उक्त पंक्तियाँ भी हटा दी जाएँ। भाई ! उनका मर्म समझने की कोशिश करना चाहिए। पण्डित जयचन्दजी छाबडा ने उक्त पंक्ति का उक्त अर्थ लिखते हुए भी भावार्थ में स्पष्ट लिखा कि - यह बात भोग की प्रेरणा देने के लिए नहीं, बल्कि परद्रव्य से अपना बुरा मानने की शंका मिटाने के लिए कही है। इसी तरह का 'ज्ञानवन्त के भोग निर्जरा हेतु हैं' वाला कथन है। इसमें भोगों को निर्जरा का कारण बताना उद्देश्य नहीं है, बल्कि ज्ञान की महिमा बताना है। ___ पण्डित दौलतरामजी ने 'छहढाला' में ज्ञानी के वात्सल्यभाव की उपमा नगर-नारी (वेश्या) के प्यार से दी है। 'प्रमेयरत्नमाला' में ज्ञान, सुख और वीर्य की एकसाथ एकत्र उपस्थिति की सिद्धि के लिए - 'यूनः कान्ता समागमे' लिखा है, अर्थात् स्त्री-पुरुष के समागम का उदाहरण दिया है। आचार्य अकलंकदेव ने 'राजवार्तिक' में ज्ञान होते ही बंध-निरोध सिद्ध करने के लिए माँ और बेटा के समागम का (14)
SR No.008346
Book TitleChaitanya Chamatkar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages38
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size204 KB
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