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________________ छहढाला छठवीं ढाल १४९ आवश्यक :कायगुप्ति :गुप्ति : चेतन स्त्री: तप: कराना और अनुमोदना करना) से दो (मन, वचन) योग द्वारा पाँच इन्द्रियाँ (कर्ण, चक्षु, घ्राण, रसना और स्पर्श) से चार संज्ञा (आहार, भय, मैथुन, परिग्रह) सहित द्रव्य से और भाव से सेवन ३--३--२--५-४--२ = ७२० - ऐसे भेद हुए। (देवी, मनुष्य, तिर्यंच) तीन प्रकार की, उनके साथ तीन कारण (करना, कराना और अनुमोदन करना) से तीन (मन, वचन, कायारूप) योग द्वारा, पाँच (कर्ण, चक्षु, घ्राण, रसना, स्पर्शरूप) इन्द्रियों से चार (आहार, भय, मैथुन, परिग्रह) संज्ञा सहित द्रव्य से और भाव से, सोलह (अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरणीय, प्रत्याख्याना वरणीय और संज्वलन - इन चार प्रकार से क्रोध, मान, माया, लोभ - ऐसे प्रत्येक) प्रकार से सेवन ३--३--३--५--४--२--१६ = १७२८० भेद हुए। प्रथम ७२० और दूसरे १७२८० भेद मिलकर १८००० भेद मैथुन-कर्म के दोषरूप भेद हैं; उनका अभाव सो शील है; उसे निर्मल स्वभाव अथवा शील कहते हैं। निश्चय और व्यवहार। नाम, स्थापना द्रव्य और भाव - ये चार हैं। प्रत्यक्ष और परोक्ष। छठवीं ढाल का लक्षण-संग्रह शुभाशुभ इच्छाओं के निरोधपूर्वक आत्मा में निर्मल ज्ञान-आनंद के अनुभव से अखण्डित प्रतापवन्त रहना; निस्तरंग चैतन्यरूप से शोभित होना। स्वोन्मुख हुए ज्ञान और सुख का रसास्वादन । ध्यान: वस्तु विचारत ध्यावतें, मन पावे विश्राम । रस स्वादत सुख ऊपजै, अनुभव याको नाम ।। मुनियों को अवश्य करने योग्य स्ववश शुद्ध आचरण। काया की ओर उपयोग न जाकर आत्मा में ही लीनता । मन, वचन, काया की ओर उपयोग की प्रवृत्ति को भलीभाँति आत्मभानपूर्वक रोकना अर्थात् आत्मा में ही लीनता होना, सो गुप्ति है। स्वरूपविश्रान्त, निस्तरंगरूप से निज शुद्धता में प्रतापवन्त होना - शोभायमान होना, सो तप है। उसमें जितनी शुभाशुभ इच्छाओं का निरोध होकर शुद्धता बढ़ती है, वह तप है; अन्य बारह भेद तो व्यवहार (उपचार) तप के हैं। सर्व विकल्पों को छोड़कर अपने ज्ञान को लक्ष्य में स्थिर करना, सो ध्यान है। वस्तु के एक अंश को मुख्य करके जाने, वह नय है और वह उपयोगात्मक है। सम्यक् श्रुतज्ञानप्रमाण का अंश, वह नय है। नयज्ञान द्वारा बाधारहितरूप से प्रसंगवशात् पदार्थ में नामादि की स्थापना करना, सो निक्षेप है। परवस्तु में ममताभाव (मोह अथवा ममत्व)। दुःख के कारण मिलने से दुःखी न हो तथा सुख के कारण मिलने से सुखी न हो, किन्तु ज्ञातारूप से उस ज्ञेय का जाननेवाला ही रहे - वही सच्चा परिषहजय है। मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र को निरवशेषरूप से छोड़कर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र को नय: निक्षेप: नय:निक्षेप :प्रमाण : परिग्रह :परिषहजय: अंतरंग तप : प्रतिक्रमण : अनुभव :
SR No.008344
Book TitleChahdhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaganlal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Karma
File Size326 KB
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