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________________ ३८ छहढाला दूसरी ढाल महादुःख :- स्वरूप सम्बन्धी अज्ञान, मिथ्यात्व। दूसरी ढाल का लक्षण-संग्रह अनेकान्त :- प्रत्येक वस्तु में वस्तुपने को प्रमाणित-निश्चित करनेवाली अस्तित्व-नास्तित्व आदि परस्पर-विरुद्ध दो शक्तियों का एक साथ प्रकाशित होना। (आत्मा सदैव स्व-रूप से है और पर-रूप से नहीं है - ऐसी जो दृष्टि, वह अनेकान्तदृष्टि है)। अमर्तिक:- रूप, रस, गंध और स्पर्शरहित वस्तु। आत्मा :- जानने-देखने अथवा ज्ञान-दर्शन शक्तिवाली वस्तु को आत्मा कहा जाता है। जो सदा जाने और जानने रूप परिणमित हो, उसे जीव अथवा आत्मा कहते हैं। उपयोग :- जीव की ज्ञान-दर्शन अथवा जानने-देखने की शक्ति का व्यापार। एकान्तवाद :- अनेक धर्मों की सत्ता की अपेक्षा न रखकर वस्तु का एक ही रूप से निरूपण करना। दर्शनमोह :- आत्मा के स्वरूप की विपरीत श्रद्धा। द्रव्यहिंसा :- त्रस और स्थावर प्राणियों का घात करना। भावहिंसा :- मिथ्यात्व तथा राग-द्वेषादि विकारों की उत्पत्ति । मिथ्यादर्शन :- जीवादि तत्त्वों की विपरीत श्रद्धा । मूर्तिक :- रूप, रस, गन्ध और स्पर्शसहित वस्तु । अन्तर-प्रदर्शन (१) आत्मा और जीव में कोई अन्तर नहीं है, पर्यायवाचक शब्द हैं। (२) अगृहीत (निसर्गज) तो उपदेशादिक के निमित्त बिना होता है, परन्तु गृहीत में उपदेशादि निमित्त होते हैं। (३) मिथ्यात्व और मिथ्यादर्शन में कोई अन्तर नहीं है; मात्र दोनों पर्यायवाचक शब्द हैं। (४) सुगुरु में मिथ्यात्वादि दोष नहीं होते, किन्तु कुगुरु में होते हैं। विद्यागुरु तो सुगुरु और कुगुरु से भिन्न व्यक्ति हैं। मोक्षमार्ग के प्रसंग में तो मोक्षमार्ग के प्रदर्शक सुगुरु से तात्पर्य है। दूसरी ढाल की प्रश्नावली (१) अगृहीत-मिथ्याचारित्र, अगृहीत-मिथ्याज्ञान, अगृहीत-मिथ्यादर्शन, कुदेव, कुगुरु, कुधर्म, गृहीत-मिथ्यादर्शन, गृहीत-मिथ्याज्ञान, गृहीत मिथ्याचारित्र, जीवादि छह द्रव्य - इन सबका लक्षण बतलाओ। (२) मिथ्यात्व और मिथ्यादर्शन में, अगृहीत और गृहीत में, आत्मा और जीव में तथा सुगुरु, कुगुरु और विद्या गुरु में क्या अन्तर है? वह बतलाओ। (३) अगृहीत का नामान्तर, आत्महित का मार्ग, एकेन्द्रिय को ज्ञान न मानने से हानि, कुदेवादि की सेवा से हानि; दूसरी ढाल में कही हुई वास्तविकता, मृत्युकाल में जीव निकलते हुए दिखाई नहीं देता, उसका कारण; मिथ्यादृष्टि की रुचि, मिथ्यादृष्टि की अरुचि, मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र की सत्ता का काल; मिथ्यादृष्टि को दुःख देनेवाली वस्तु, मिथ्याधार्मिक कार्य करने-कराने व उसमें सम्मत होने से हानि तथा सात तत्त्वों की विपरीत श्रद्धा के प्रकारादि का स्पष्ट वर्णन करो। १. अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति । तेषामेवोत्पत्तिर्हिसेति जिनागमस्य संक्षेपः ।।४४ ।। (पुरुषार्थसिद्ध्युपाय) अर्थ :- वास्तव में रागादि भावों का प्रकट न होना, सो अहिंसा हैं और रागादि भावों की उत्पत्ति होना सो हिंसा है - ऐसा जिनागम शास्त्र का संक्षिप्त रहस्य है।
SR No.008344
Book TitleChahdhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaganlal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Karma
File Size326 KB
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