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________________ छहढाला दूसरी ढाल (रति) प्रेम (करै) करता है और कर्मबंध के (अशुभ) बुरे फल से (अरति) द्वेष करता है; तथा जो (विराग) राग-द्वेष का अभाव [अर्थात् अपने यथार्थ स्वभाव में स्थिरतारूप सम्यक्चारित्र] और (ज्ञान) सम्यग्ज्ञान [और सम्यग्दर्शन] (आत्महित) आत्मा के हित के (हेतु) कारण हैं (ते) उन्हें (आपको) आत्मा को (कष्टदान) दुःख देनेवाले (लखै) मानता है। भावार्थ :- (१) बंधतत्त्व की भूल :- अघातिकर्म के फलानुसार पदार्थों की संयोग-वियोगरूप अवस्थाएँ होती हैं। मिथ्यादृष्टि जीव उन्हें अनुकूलप्रतिकूल मानकर उनसे मैं सुखी-दुःखी हूँ - ऐसी कल्पना द्वारा राग-द्वेष, आकुलता करता है। धन, योग्य स्त्री, पुत्रादि का संयोग होने से रति करता है; रोग, निंदा, निर्धनता, पुत्र-वियोगादि होने से अरति करता है; पुण्य-पाप दोनों बंधनकर्ता हैं, किन्तु ऐसा न मानकर पुण्य को हितकारी मानता है; तत्त्वदृष्टि से तो पुण्य-पाप दोनों अहितकर ही हैं; परन्तु अज्ञानी ऐसा निर्धाररूप नहीं मानता - वह बन्धतत्त्व की विपरीत श्रद्धा है। (२) संवरतत्त्व की भूल :- निश्चयसम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ही जीव को हितकारी हैं; स्वरूप में स्थिरता द्वारा राग का जितना अभाव वह वैराग्य है और वह सख के कारणरूप है। तथापि अज्ञानी जीव उसे कष्टदाता मानता है - यह संवरतत्त्व की विपरीत श्रद्धा है। निर्जरा और मोक्ष की विपरीत श्रद्धा तथा अगृहीत मिथ्याज्ञान रोके न चाह निजशक्ति खोय, शिवरूप निराकुलतान जोय । याही प्रतीतिजुत कछुक ज्ञान, सो दुखदायक अज्ञान जान ।।७।। १. अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंतसुख और अनंतवीर्य ही आत्मा का सच्चा स्वरूप है। अन्वयार्थ :- [मिथ्यादृष्टि जीव] (निजशक्ति) अपने आत्मा की शक्ति (खोय) खोकर (चाह) इच्छा को (न रोके) नहीं रोकता और (निराकुलता) आकुलता के अभाव को (शिवरूप) मोक्षका स्वरूप (न जोय) नहीं मानता। (याही) इस (प्रतीतिजुत) मिथ्या मान्यता सहित (कछुक ज्ञान) जो कुछ ज्ञान है (सो) वह (दुखदायक) कष्ट देनेवाला (अज्ञान) अगृहीत मिथ्याज्ञान है - ऐसा (जान) समझना चाहिये। भावार्थ :- (१) निर्जरातत्त्व की भूल :- आत्मा में आंशिक शुद्धि की वृद्धि तथा अशुद्धि की हानि होना, उसे संवरपूर्वक निर्जरा कहा जाता है; वह निश्चयसम्यग्दर्शन पूर्वक ही हो सकती है। ज्ञानानन्दस्वरूप में स्थिर होने से शुभ-अशुभ इच्छा का निरोध होता है वह तप है। तप दो प्रकार का है :(१) बालतप (२) सम्यक्तप; अज्ञानदशा में जो तप किया जाता है, वह बालतप है, उससे कभी सच्ची निर्जरा नहीं होती; किन्तु आत्मस्वरूप में सम्यक् प्रकार से स्थिरता-अनुसार जितना शुभ-अशुभ इच्छा का अभाव होता है, वह सच्ची निर्जरा है - सम्यक्तप है; किन्तु मिथ्यादृष्टि जीव ऐसा नहीं मानता । अपनी अनन्त ज्ञानादि शक्ति को भूलकर पराश्रय में सुख मानता है, शुभाशुभ इच्छा तथा पाँच इन्द्रियों के विषयों की चाह को नहीं रोकता - यह निर्जरातत्त्व की विपरीत श्रद्धा है। (२) मोक्षतत्त्व की भूल :- पूर्ण निराकुल आत्मिक सुख की प्राप्ति अर्थात् जीव की सम्पूर्ण शुद्धता वह मोक्ष का स्वरूप है तथा वही सच्चा सुख है; किन्तु अज्ञानी ऐसा नहीं मानता। मोक्ष होने पर तेज में तेज मिल जाता है अथवा वहाँ शरीर, इन्द्रियाँ तथा विषयों के बिना सुख कैसे हो सकता है? वहाँ से पुनः अवतार धारण करना 19
SR No.008344
Book TitleChahdhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaganlal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Karma
File Size326 KB
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