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________________ छहढाला दूसरी ढाल अन्वयार्थ :- [मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यादर्शन के कारण से मानता है कि (मैं) मैं (सुखी) सुखी (दुखी) दुःखी, (रंक) निर्धन, (राव) राजा हूँ, (मेरे) मेरे यहाँ (धन) रुपया-पैसा आदि (गृह) घर (गो-धन) गाय, भैंस आदि (प्रभाव) बड़प्पन [है; और] (मेरे सुत) मेरी संतान तथा (तिय) मेरी स्त्री है; (मैं) मैं (सबल) बलवान, (दीन) निर्बल, (बेरूप) कुरूप, (सुभग) सुन्दर, (मूरख) मूर्ख और (प्रवीण) चतुर हूँ। भावार्थ:-(१)जीवतत्त्व की भूल :जीव तो त्रिकाल ज्ञानस्वरूप है, उसे अज्ञानी जीव नहीं जानता और जो शरीर है; सो मैं ही हूँ, शरीर के कार्य मैं कर सकता हूँ, शरीर स्वस्थ हो तो मुझे लाभ हो, बाह्य अनुकूल संयोगों से मैं सुखी और प्रतिकूल संयोगों से मैं दुःखी, मैं निर्धन, मैं धनवान, मैं बलवान, मैं निर्बल, मैं मनुष्य, मैं कुरूप, मैं सुन्दर - ऐसा मानता है; शरीराश्रित उपदेश तथा उपवासादि क्रियाओं में अपनत्व मानता है - इत्यादि मिथ्या अभिप्राय द्वारा जो अपने परिणाम नहीं हैं, उन्हें आत्मा का परिणाम मानता है, वह जीवतत्त्व की भूल है। अजीव और आस्रवतत्त्व की विपरीत श्रद्धा तन उपजत अपनी उपज जान, तन नशत आपको नाश मान । रागादि प्रगट ये दुःख देन, तिनही को सेवत गिनत चैन ।।५।। (तन) शरीर के (नशत) नाश होने से (आपको) आत्मा का (नाश) मरण हुआ - ऐसा (मान) मानता है। (रागादि) राग, द्वेष, मोहादि (ये) जो (प्रगट) स्पष्ट रूप से (दुःख देन) दुःख देने वाले हैं (तिनही को) उनकी (सेवत) सेवा करता हुआ (चैन) सुख (गिनत) मानता है। भावार्थ :- (१) अजीवतत्त्व की भूल : मिथ्यादृष्टि जीव ऐसा मानता है कि शरीर की उत्पत्ति (संयोग) होने से मैं उत्पन्न हुआ और शरीर का नाश (वियोग) होने से मैं मर जाऊँगा, (आत्मा का मरण मानता है;) धन, शरीरादि जड़ पदार्थों में परिवर्तन होने से अपने में इष्ट-अनिष्ट परिवर्तन मानना, शरीर क्षुधा-तृषारूप अवस्था होने से मुझे क्षुधा-तुषादि होते हैं: शरीर कटने से मैं कट गया - इत्यादि जो अजीव की अवस्थाएँ हैं, उन्हें अपनी मानता है - यह अजीवतत्त्व की भूल है। (२) आस्रवतत्त्व की भूल :- जीव अथवा अजीव कोई भी पर पदार्थ आत्मा को किंचित् भी सुख-दुःख, सुधार-बिगाड़, इष्ट-अनिष्ट नहीं कर सकते, तथापि अज्ञानी ऐसा नहीं मानता । पर में कर्तृत्व, ममत्वरूप मिथ्यात्व तथा राग-द्वेषादि शुभाशुभ आस्रवभाव प्रत्यक्ष दुःख देनेवाले हैं, बंध के ही कारण हैं, तथापि अज्ञानी जीव उन्हें सुखकर जानकर सेवन करता है और शुभभाव भी बन्ध का ही कारण है - आस्रव है. उसे हितकर मानता है। परद्रव्य जीव को लाभ-हानि नहीं पहुँचा सकते, तथापि उन्हें इष्ट-अनिष्ट मानकर उनमें प्रीति-अप्रीति करता है; मिथ्यात्व, राग-द्वेष का स्वरूप नहीं जानता; पर पदार्थ मुझे सुख-दुःख देते हैं अथवा राग-द्वेष-मोह कराते हैं - ऐसा मानता है, वह आस्रवतत्त्व की भूल है। बंध और संवरतत्त्व की विपरीत श्रद्धा शुभ-अशुभ बंध के फल मंझार, रति-अरति करै निज पद विसार । आतमहित हेतु विराग ज्ञान, ते लखै आपको कष्टदान ।।६।। अन्वयार्थ :- [मिथ्यादृष्टि जीव] (निज पद) आत्मा के स्वरूप को (विसार) भूलकर (बंध के) कर्मबंध के (शुभ) अच्छे (फल मँझार) फल में १. आत्मा अमर है; वह विष, अग्नि, शस्त्र, अस्त्र अथवा अन्य किसी से नहीं मरता और न नवीन उत्पन्न होता है। मरण (वियोग) तो मात्र शरीर का ही होता है। अन्वयार्थ :- [मिथ्यादृष्टि जीव] (तन) शरीर के (उपजत) उत्पन्न होने से (अपनी) अपना आत्मा (उपज) उत्पन्न हुआ (जान) ऐसा मानता है और १.जो शरीरादि पदार्थ दिखाई देते हैं, वे आत्मा से भिन्न हैं; उनके ठीक रहने या बिगड़ने से आत्मा का कुछ भी अच्छा-बुरा नहीं होता; किन्तु मिथ्यादृष्टि जीव इससे विपरीत मानता है। 18
SR No.008344
Book TitleChahdhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaganlal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Karma
File Size326 KB
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