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________________ देवानुराग शतक बुधजन सतसई तीन लोक के पति प्रभू, परमातम परमेश। मन-वच-तनते नमत हूँ, मेटो कठिन कलेश ।।७।। पूजूं तेरे पाँयकू, परम पदारथ जान । तुम पूजेतें होत हैं, सेवक आप समान ।।८।। तुम समान कोउ आन नहिं, नमूं जाय कर नाय। सुरपति नरपति नागपति, आय परें तुम पाँय ।।९।। तुम अनंतगुन मुखथकी', कैसे गाये जात। इंद मुनिंद फनिंद हू, गान करत थकि जात ।।१०।। तुम अनंत महिमा अतुल, यों मुख करहूं गान । सागर जल पीत न बनें, पीजे तृषा समान ।।११।। कह्या विना कैसे रहूं, मौसर मिल्यो अबार । ऐसी विरियां टरि गया', कैसे बनत सुधार ।।१२।। जो हूं कहऊं और तें, तो न मिटे उरझार । मेरी तो तोसों बने, तातें करूं पुकार ।।१३।। आनंदघन तुम निरखिके, हरषत है मन मोर । दूर भयो आताप सब, सुनिके मुख की घोर ।।१४।। आन थान अब ना रुचे, मन राच्यो तुम नाथ । रतन चिंतामनि पायके, गहे काच को हाथ ।।१५।। चंचल रहत सदैव चित्त, थक्यो न काहू ठोर । अचल भयो इकटक अबे, लग्यो रावरी ओर ।।१६।। मन मोह्यो मेरो प्रभू, सुन्दर रूप अपार । इन्द्र सारिखे थकि रहे, करि करि नैन हजार ।।१७।। १. मुख से, २. सागर का पानी पिया नहीं जा सकता, ३. अवसर-मौका, ४. इस समय, ५. यदि इस समय नहीं कहूँगा तो ६. मैं, ७. दिव्यध्वनि, ८. कौन, ९. आपकी जैसें भानुप्रतापते, तम नाशे सब ओर । तैसे तुम निरखत नश्यो संशय-विभ्रम मोर ।।१८।। धन्य नैन तुम दरस लखि, धनि मस्तक लगि पाँय । श्रवन धन्य वानी सुने, रसना धनि गुन गाय ।।१९।। धन्य दिवस धनि या घरी, धन्य भाग मुझ आज । जनम सफल अब ही भयो, बंदत श्रीमहाराज ।।२०।। लखितुमछबिचितचोर को, चकित थकितचितचोर। आनंद पूरन भरि गयो, नाहिं चाहि रहि और ।।२१।। चित चातक आतुर लखे, आनंदघन तुम ओर । वचनामृत पी तृप्त भयो, तृषा रही नहिं और ।।२२।। जैसो वीरज आपमें, तैसो कहूँ न और। एक ठोर राजत अचल, व्याप रहे सब ठौर ।।२३।। यो अद्भुत ज्ञातापनो, लख्यो आपकी जाग' । भली बुरी निरखत रहो, करो नाहिं कहुं राग ।।२४।। धरि विशुद्धता भाव निज, दई असाता खोय । क्षुधा तृषा तुम परिहरी, जैसे करिये मोय ।।२५।। त्यागि बुद्धि परजाय की, लखे सर्व समभाय । राग दोष तत्क्षण टस्यो, राचे सहज सुभाय ।।२६।। मोह ममता वमता भया, समता आतमराम । अमर अजन्मा होय शिव, जाय लह्यो विसराम ।।२७।। हेत प्रीति तबसो तजी, मगन निजातममाहिं। रोग शोक अब क्यों बने, खाना पीना नाहिं ।।२८।। १. पराक्रम से, २.कान, ३. मनमोहक, ४. वीर्य, ६. पर्यायबुद्धि को, ७. सबको एक भाव से, ८. उसी समय, ९. नष्ट हो गया, १०. छोड़कर, ११. राग, १२. खेद
SR No.008343
Book TitleBudhjan Satsai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBudhjan Kavivar
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size242 KB
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