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________________ भक्तामर प्रवचन जीवों को अत्यन्त असाता का योग होता है, तथापि आपके जन्म एवं निर्वाण जाने के समय उन्हें भी साता होती है। आपके केवलज्ञान होने पर, इन्द्र का भी आसन कम्पायमान होता है। तब वह अवधिज्ञान से जानता है कि अहो ! भगवान तीर्थंकर के केवलज्ञान हुआ है। उस समय चौदह ब्रह्माण्ड में हर्ष की लहर छाती है। हे नाथ! आपकी पवित्रता की क्या बात? आपके इतना पुण्य है कि वह सर्वलोक में प्रगट होता है। आप जब माँ के गर्भ में आते हैं, तब देव गर्भ-कल्याणक का उत्सव मनाते हैं और आपके जन्म के समय देवलोक में चार प्रकार बाजे बज उठते हैं। हे प्रभु! आपके गुणों की कीर्ति जगत में व्याप्त है। हेनाथ! आपके पाँच कल्याणक जगत में मंगलरूप हैं। आपके अंतरंग गुण जगत में व्याप्त हैं। आपके कल्याणककेसमय जगत के मुख्य और प्रसिद्ध जीव ही क्या, अपितु सभी जीव जानते हैं कि जगत उद्धारक तीर्थंकर का जन्म हुआ है। उस समय कल्पवासी देवों के यहाँ अनहद घंटा, ज्योतिषी देवों के यहाँ सिंहनाद, भवनवासी देवों के यहाँ पटह नामक बाजे एवं व्यंतर देवों के तुर्य नामक बाजे स्वत: बज उठते हैं। तब सभी देव परस्पर पूछते हैं कि यह क्या हुआ ? तब इन्द्र अपने अवधिज्ञान का उपयोग करके जानता है कि अहो ! तीर्थंकर भगवान का अमुक कल्याणक हुआ है। इन्द्र उसी समय अपने आसन से उतर कर कल्याणक की दिशा में सात कदम आगे बढ़कर नमस्कार करता है। संसारी-जीव कहते हैं कि मेरी इज्जत करो, मेरे मरने के बाद सम्मान में भोज करो, किन्तु यहाँ यह बात नहीं है। भगवान केकेवलज्ञान या कोई कल्याणक होने पर समस्त जीवों के स्वत: महोत्सव होता है। भगवान ! वस्तुतः आपकी कीर्ति समस्त संसार में व्याप्त है। उसकी तुलना में लौकिक राजा की कीर्ति थोथी है। हमें ऐसा नहीं लगता कि कोई भव्य जीव ऐसा भी होगा जिसने आपकेगुणगान न किये हों। आपकी कीर्ति तीन लोक में न हो - ऐसा नहीं बनता; वह स्वत: होती है, उसके लिए किसी को प्रयत्न नहीं करना पड़ता । लौकिक में सम्मान व शादी आदि के लिए जलसे (उत्सव) करने पड़ते हैं, किन्तु आपके लिए जलसे नहीं करने पड़ते । सबको स्वाभाविक रूप से उत्साह होता है। आपके भक्तों के गुणों का विकास अपनी योग्यता से स्वत: होता काव्य १४ है और पुण्य बढ़ता है। जगत में उनकी कीर्ति भले बढ़े, किन्तु वे ईश्वर की कृपा से तर जावें - ऐसा नहीं है। तीन ज्ञान के धारी, एक भवावतारी, तेतीस सागर की आयुवाले सर्वार्थसिद्धि के देव भी आपका गुणगान करते हैं। जो मनुष्य होकर अल्पकाल में स्वयं भी मोक्ष जानेवाले हैं। आपके केवलज्ञान कल्याणक के समय सातवें नरक में भी शांति होती है, तब योग्य जीव को ख्याल होता है कि इस समय भगवान के केवलज्ञान हुआ है। इसलिए तू भी भगवान का भक्त बन और संसार, शरीर तथा भोगों की भावना छोड़ दे। वह भगवान का सच्चा भक्त है, जिसके अंतर में पूर्ण साध्य-स्वरूप परमात्म-शक्ति के ध्येय का अप्रतिहत भाव जागृत हुआ है। हे भगवन् ! जिसतरह राज्यों में परस्पर युद्ध के समय संधि करानेवाले साहसी, चतुर, होशियार दूत के आवागमन को कोई रोक नहीं सकता। जब भरत का दूत बाहुबली की सभा में जाता है, तब कोई उसे रोक नहीं पाता। वह अपने आपको भरत का दूत बताता हुआ खूब नम्रतापूर्वक और दृढ़ता से बाहुबली से निवेदन करता है कि "भरत चक्रवर्ती आपका भाई है, वह आपको खूब चाहता है; किन्तु वह छः खण्ड का स्वामी है, अत: आपको उसे नमस्कार करना चाहिए।” यद्यपि यह सुनते ही बाहुबली उग्र हो जाते हैं और उनकी आँखें लाल हो जाती हैं, तथापि चतुर दूत इस प्रतिक्रिया को देखकर भी आगे कहता है कि “भरत चक्रवर्ती की आज्ञा है कि आप उन्हें नमस्कार करें।" बाहुबली इसे अपना अपमान समझकर दूत को मारने की आज्ञा देते हैं, तब दूत पुनः निवेदन करता है कि “मैं तो दूत हूँ, मैं भरत चक्रवर्ती की आज्ञा से आया हूँ, मुझे आप रोक नहीं सकते।" इसीप्रकार हे नाथ ! आपके भक्त को भी कोई आपकी भक्ति करने से रोक नहीं सकता तथा जैसे आपकी कीर्ति पर कोई प्रतिबंध नहीं है; वैसे ही आपके सेवक की कीर्ति को भी कोई कैसे रोके ? हे प्रभु ! मैं जहाँ कहीं जाता हूँ, वहीं आपके केवलज्ञान और पुण्य की महिमा देखता हूँ। स्व-पर प्रकाशक सम्यग्ज्ञान में भी इसी का निरन्तर गुणगान होता है।
SR No.008342
Book TitleBhaktamara Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size385 KB
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