SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 378
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्टपाहुड ३४० एकदेश है इसप्रकार जानना ।।३२।। आगे इस कथन का संकोच करते हैं - एवं बहुप्पयारं जिणेहि पच्चक्खणाणदरसीहिं। सीलेण य मोक्खपयं अक्खातीदं य लोयणाणेहिं ।।३३।। एवं बहुप्रकारं जिनैः प्रत्यक्षज्ञानदर्शिभिः । शीलेन च मोक्षपदं अक्षातीतं च लोकज्ञानैः ।।३३।। अर्थ – एवं अर्थात् पूर्वोक्त प्रकार तथा अन्य प्रकार (बहुत प्रकार) जिनके प्रत्यक्ष ज्ञान दर्शन पाये जाते हैं और जिनके लोक अलोक का ज्ञान है ऐसे जिनदेव ने कहा है कि शील से-अक्षातीत जिसमें इन्द्रियरहित अतीन्द्रिय ज्ञान सुख है ऐसा मोक्षपद होता है। __भावार्थ - सर्वज्ञदेव ने इसप्रकार कहा है कि शील से अतीन्द्रिय ज्ञान सुखरूप मोक्षपद प्राप्त होता है, अत: भव्यजीव इस शील को अंगीकार करो, ऐसा उपदेश का आशय सूचित होता है, बहुत कहाँ तक कहें इतना ही बहुत प्रकार से कहा जानो ।।३३।।। आगे कहते हैं कि इस शील से निर्वाण होता है उसका बहुतप्रकार से वर्णन है वह कैसे ? सम्मत्तणाणदंसणतववीरियपंचयारमप्पाणं । जलणो वि पवणसहिदो डहति पोरायणं कम्म||३४|| सम्यक्त्वज्ञानदर्शनतपोवीर्यपंचाचारा: आत्मनाम् । ज्वलनोऽपि पवनसहित: दहंति पुरातनं कर्म ।।३४।। अर्थ – सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, तप, वीर्य - ये पंच आचार हैं वे आत्मा का आश्रय पाकर पुरातन कर्मों को वैसे ही दग्ध करते हैं जैसे कि पवन सहित अग्नि पुराने सूखे ईंधन को दग्ध कर देती है। भावार्थ - यहाँ सम्यक्त्व आदि पंच आचार तो अग्निस्थानीय हैं और आत्मा के त्रैकालिक शुद्ध स्वभाव को शील कहते हैं, यह आत्मा का स्वभाव पवनस्थानीय है वह पंच आचाररूप अग्नि और शीलरूपी पवन की सहायता पाकर पुरातन कर्मबंध को दग्ध करके आत्मा को शुद्ध अरे! जिसमें अतीन्द्रिय सुख ज्ञान का भण्डार है। वह मोक्ष केवल शील से हो प्राप्त - यह जिनवर कहें ।।३३।। ये ज्ञान दर्शन वीर्य तप सम्यक्त्व पंचाचार मिल। जिम आग ईंधन जलावे तैसे जलावें कर्म को ।।३४ ।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy