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________________ ३२४ ज्ञानं चारित्रहीनं लिंगग्रहणं च दर्शनविहीनं । संयमहीनं च तपः यदि चरति निरर्थकं सर्वम् ॥ ५ ॥ अर्थ - ज्ञान यदि चारित्ररहित हो तो वह निरर्थक है और लिंग का ग्रहण यदि दर्शनरहित हो तो वह भी निरर्थक है तथा संयमरहित तप भी निरर्थक है इसप्रकार ये आचरण करे तो सब निरर्थक है । अष्टपाहुड भावार्थ - हेय उपादेय का ज्ञान तो हो और त्याग ग्रहण न करे तो ज्ञान निष्फल है, यथार्थ श्रद्धान के बिना भेष ले तो वह भी निष्फल है (स्वात्मानुभूति के बल द्वारा) इन्द्रियों को वश में करना, जीवों की दया करना यह संयम है इसके बिना कुछ तप करे तो अहिंसादिक विपर्यय हो तब तप भी निष्फल हो इसप्रकार से इनका आचरण निष्फल होता है ॥५॥ आगे इसीलिए कहते हैं कि ऐसा करके थोड़ा भी करे तो बड़ा फल होता है णाणं चरित्तसुद्धं लिंगग्गहणं च दंसणविसुद्धं । संजमसहिदो य तवो थोओ वि महाफलो होइ || ६ || ज्ञान चारित्रशुद्धं लिंगग्रहणं च दर्शनविशुद्धम् । संयमसहितं च तपः स्तोकमपि महाफलं भवति ॥ ६ ॥ अर्थ - ज्ञान तो चारित्र से शुद्ध और लिंग का ग्रहण दर्शन से शुद्ध तथा संयम सहित तप ऐसे थोड़ा भी आचरण करे तो महाफलरूप होता है। भावार्थ - ज्ञान थोड़ा भी हो और आचरण शुद्ध करे तो बड़ा फल हो और यथार्थ श्रद्धापूर्वक भेष ले तो बड़ा फल करे जैसे सम्यग्दर्शनसहित श्रावक ही हो तो श्रेष्ठ और उसके बिना मुनिका भेष भी श्रेष्ठ नहीं है, इन्द्रियसंयम प्राणीसंयम सहित उपवासादिक तप थोड़ा भी करे तो बड़ा फल होता है और विषयाभिलाष तथा दयारहित बड़े कष्ट सहित तप करे तो भी फल नहीं होता है, ऐसे जानना || ६ || आगे कहते हैं कि यदि कोई ज्ञान को जानकर भी विषयासक्त रहते हैं वे संसार ही में भ्रमण करते हैं - णाणं णाऊण णरा केई विसयाइभावसंसत्ता । हिंडंति चादुरगदिं विसएसु विमोहिया मूढ़ा ॥ ७ ॥ दर्शन सहित हो वेश चारित्र शुद्ध सम्यग्ज्ञान हो । संयम सहित तप अल्प भी हो तदपि सुफल महान हो ॥ ६ ॥
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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