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________________ शीलपाहुड ३२३ जानकर उसकी भावना करना, बारंबार अनुभव करना दु:ख से (दृढ़तर सम्यक् पुरुषार्थ से) होता है और कदाचित् ज्ञान की भावनासहित भी जीव हो जावे तो विषयों को दुःख से त्यागता है। भावार्थ - ज्ञान की प्राप्ति करना, फिर उसकी भावना करना, फिर विषयों का त्याग करना ये उत्तरोत्तर दुर्लभ हैं और विषयों का त्याग किये बिना प्रकृति पलटी नहीं जाती है इसलिए पहिले ऐसा कहा है कि विषय ज्ञान को बिगाड़ते हैं, अत: विषयों को त्यागना ही सुशील है।।३।। __ आगे कहते हैं कि यह जीव जबतक विषयों में प्रवर्तता है तबतक ज्ञान को नहीं जानता है और ज्ञान को जाने बिना विषयों से विरक्त हो तो भी कर्मों का क्षय नहीं करता है - तावण जाणदिणाणं विसयबलो जाव वट्टए जीवो। विसए विरत्तमेत्तो ण खवेइ पुराइयं कम्मं ।।४।। तावत न जानाति ज्ञान विषयबल: यावत वर्त्तते जीवः। विषये विरक्तमात्र: न क्षिपते पुरातनं कर्म ।।४।। अर्थ - जबतक यह जीव विषयबल अर्थात् विषयों के वशीभूत रहता है, तबतक ज्ञान को नहीं जानता है और ज्ञान को जाने बिना केवल विषयों में विरक्तमात्र ही से पहिले बाँधे हुए कर्मों का क्षय नहीं करता है। ___ भावार्थ - जीव का उपयोग क्रमवर्ती है और स्वस्थ (स्वच्छत्व) स्वभाव है, अत: जैसे ज्ञेय को जानता है, उससमय उससे तन्मय होकर वर्तता है, अत: जबतक विषयों में आसक्त होकर वर्तता है, तबतक ज्ञान का अनुभव नहीं होता है, इष्ट अनिष्ट भाव ही रहते हैं और ज्ञान का अनुभव किये बिना कदाचित विषयों को त्यागे तो वर्तमान विषयों को छोडे, परन्तु पूर्व कर्म बाँधे थे उनका तो ज्ञान का अनुभव किये बिना क्षय नहीं होता है, पूर्व कर्म के बंध का क्षय करने में (स्वसन्मुख) ज्ञान ही का सामर्थ्य है इसलिए ज्ञानसहित होकर विषय त्यागना श्रेष्ठ है, विषयों को त्यागकर ज्ञान की ही भावना करना यही सुशील है ।।४।। आगे ज्ञान का, लिंगग्रहण का तथा तप का अनुक्रम कहते हैं - णाणं चरित्तहीणं लिंगग्गहणं च दंसणविहूणं । संजमहीणो य तवो जइ चरइ णिरत्थयं सव्व ।।५।। विषय बल हो जबतलक तबतलक आतमज्ञान ना। केवल विषय की विरक्ति से कर्म का हो नाश ना ।।४।। दर्शन रहित यदि वेष हो चारित्र विरहित ज्ञान हो। संयम रहित तप निरर्थक आकास-कुसुम समान हो ।।५।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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