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________________ ३०८ यः पापमोहितमति: लिंग गृहीत्वा जिनवरेन्द्रानाम् । उपहसति लिंगिभावं लिंगिषु नारद: लिंगी || ३ || अर्थ - जो जिनवरेन्द्र अर्थात् तीर्थंकर देव के लिंग नग्न दिगम्बररूप को ग्रहण करके लिंगीपने के भाव को उपहसता है, हास्यमात्र समझता है वह लिंगी अर्थात् भेषी जिसकी बुद्धि पाप से मोहित है, वह नारद जैसा है अथवा इस गाथा के चौथे पाद का पाठान्तर ऐसा है - "लिंग णासेदि लिंगीणं' इसका अर्थ - यह लिंगी कोई अन्य जो कई लिंगों के धारक हैं उनके लिंग को भी नष्ट करता है, ऐसा बताता है कि लिंगी सब ऐसे ही हैं। भावार्थ - लिंगधारी होकर भी पापबुद्धि से कुछ कुक्रिया करे तब उसने लिंगीपने को हास्यमात्र समझा, कुछ कार्यकारी नहीं समझा । लिंगीपना तो भावशुद्धि से शोभा पाता है, जब भाव बिगड़े तब बाह्य कुक्रिया करने लग गया तब इसने इस लिंग को लजाया और अन्य लिंगियों के लिंग को भी कलंक लगाया, लोग कहने लगे कि लिंगी ऐसे ही होते हैं अथवा जैसे नारद का भेष है, उसमें वह अपनी इच्छानुसार स्वच्छंद प्रवर्तता है वैसे ही यह भी भेषी ठहरा इसलिए आचार्य ने ऐसा आशय धारण करके कहा है कि जिनेन्द्र के भेष को लजाना योग्य नहीं है ।। ३ ।। आगे लिंग धारण करके कुक्रिया करे उसको प्रगट कहते हैं - णच्चदि गायदि तावं वायं वाएदि लिंगरूवेण । सो पावमोहिदमदी तिरिक्खजोणी ण सो समणो ॥ ४ ॥ अष्टपाहुड नृत्यति गायति तावत् वाद्यं वादयति लिंगरूपेण । स: पापमोहितमति: तिर्यग्योनिः न सः श्रमणः || ४ || अर्थ – जो लिंगरूप करके नृत्य करता है, गाता है, वादित्र बजाता है, सो पाप से महि बुद्धिवाला है, तिर्यंचयोनि है, पशु है, श्रमण नहीं है। भावार्थ - लिंग धारण करके भाव बिगाड़कर नाचना, गाना, बजाना इत्यादि क्रियायें करता है, वह पापबुद्धि है, पशु है, अज्ञानी है, मनुष्य नहीं है, मनुष्य हो तो श्रमणपना रक्खे। जैसे नारद परिहास में मोहितमती धारण करें जिनलिंग जो । वे अज्ञजन बदनाम करते नित्य जिनवर लिंग को ॥३॥ जो नाचते गाते बजाते वाद्य जिनवर लिंगधर । हैं पाप मोहितमती रे वे श्रमण नहिं तिर्यंच हैं ||४||
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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