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________________ लिंगपाहुड ३०७ उस लिंग को साधकर सिद्ध हुए, इसप्रकार अरहंत सिद्धों को नमस्कार करके ग्रन्थ करने की प्रतिज्ञा की है।।१।। आगे कहते हैं कि जो लिंग बाह्यभेष है वह अंतरंगधर्मसहित कार्यकारी है - धम्मेण होइ लिंगं ण लिंगमत्तेण धम्मसंपत्ती। जाणेहि भावधम्मं किं ते लिंगेण कायव्वो।।२।। धर्मेण भवति लिंगं न लिंगमात्रेण धर्मसंप्राप्तिः। जानीहि भावधर्मं किं ते लिंगेन कर्तव्यम् ।।२।। अर्थ - धर्म सहित तो लिंग होता है, परन्तु लिंगमात्र ही से धर्म की प्राप्ति नहीं है, इसलिए हे भव्यजीव ! तू भावरूप धर्म को जान और केवल लिंग ही से तेरा क्या कार्य होता है अर्थात् कुछ भी नहीं होता है। भावार्थ - यहाँ ऐसा जानो कि लिंग ऐसा चिह्न का नाम है वह बाह्य भेष धारण करना मुनि का चिह्न है ऐसा चिह्न यदि अंतरंग वीतराग स्वरूप धर्म हो तो उस सहित तो यह चिह्न सत्यार्थ होता है और इस वीतरागस्वरूप आत्मा के धर्म के बिना लिंग जो बाह्य भेषमात्र से धर्म की संपत्ति-सम्यक् प्राप्ति नहीं है, इसलिए उपदेश दिया है कि अंतरंग भावधर्म रागद्वेष रहित आत्मा का शद्ध ज्ञान दर्शनरूप स्वभाव धर्म है, उसे हे भव्य ! त जान, इस बाह्य लिंग भेषमात्र से क्या काम है ? कुछ भी नहीं। यहाँ ऐसा भी जानना कि जिनमत में लिंग तीन कहे हैं - एक तो मुनि का यथाजात दिगम्बर लिंग, दूजा उत्कृष्ट श्रावक का, तीजा आर्यिका का, इन तीनों ही लिंगों को धारण कर भ्रष्ट होकर जो कुक्रिया करते हैं, इसका निषेध है। अन्यमत के कई भेष हैं इनको भी धारण करके जो कुक्रिया करते हैं, वह भी निंदा ही पाते हैं, इसलिए भेष धारण करके कुक्रिया नहीं करना ऐसा बताया ।।२।। आगे कहते हैं कि जो जिनलिंग निर्ग्रन्थ दिगम्बर रूप को ग्रहण कर कुक्रिया करके हँसी कराते हैं, वे जीव पापबुद्धि हैं - जो पावमोहिदमदी लिंगं घेत्तूण जिणवरिंदाणं । उवहसदि लिंगिभावं लिंगिम्मिय णारदो लिंगी ।।३।। १. पाठान्तर - 'लिंगम्मिय णारदो लिंगी' के स्थान पर 'लिंग णासेदि लिंगीणं'। धर्म से हो लिंग केवल लिंग से न धर्म हो। समभाव को पहिचानिये द्रवलिंग से क्या कार्य हो ।।२।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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