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________________ २८७ मोक्षपाहुड भी नहीं है। जब भावलिंगी निर्ग्रन्थ मनिपद की प्राप्ति करता है, तब यह आत्मा आत्मा ही में अपने ही द्वारा अपने ही लिये विशेष लीन होता है तब निश्चयसम्यक्चारित्रस्वरूप होकर अपना ही ध्यान करता है, तब ही (साक्षात् मोक्षमार्ग में आरूढ़) सम्यग्ज्ञानी होता है इसका फल निर्वाण है, इसप्रकार जानना चाहिए ।।८३।। (नोंध - प्रवचनसार गाथा २४१-२४२ में जो सातवें गुणस्थान में आगमज्ञान तत्त्वार्थश्रद्धान संयतत्व और निश्चय आत्मज्ञान में युगपत् आरूढ़ को आत्मज्ञान कहा है वह कथन की अपेक्षा यहाँ है।) (गौण-मुख्य समझ लेना) आगे इस ही अर्थ को दृढ़ करते हुए कहते हैं - पुरिसायारो अप्पा जोई वरणाणदंसणसमग्गो। जो झायदि सो जोई पावहरो हवदि णिबंदो ।।८४।। पुरुषाकार आत्मा योगी वरज्ञानदर्शनसमग्रः। य: ध्यायति स: योगी पापहरः भवति निर्द्वन्दः ।।८४।। अर्थ - यह आत्मा ध्यान के योग्य कैसा है ? पुरुषाकार है, योगी है, जिसके मन, वचन, काय के योगों का निरोध है, सर्वांग सनिश्चल है और वर अर्थात श्रेष्ठ सम्यकरूप ज्ञान तथा दर्शन से समग्र है, परिपूर्ण है, जिसके केवलज्ञान दर्शन प्राप्त हैं, इसप्रकार आत्मा का जो योगी ध्यानी मुनि ध्यान करता है वह मुनि पाप को हरनेवाला है और निर्द्वन्द है-रागद्वेष आदि विकल्पों से रहित है। भावार्थ - जो अरहंतरूप शुद्ध आत्मा का ध्यान करता है उसके पूर्व कर्म का नाश होता है और वर्तमान में रागद्वेषरहित होता है तब आगामी कर्म को नहीं बांधता है ।।८४।।। आगे कहते हैं कि इसप्रकार मुनियों को प्रवर्तने के लिए कहा। अब श्रावकों को प्रवर्तने के लिए कहते हैं - एवं जिणेहि कहियं सवणाणं सावयाण पुण सुणसु। संसारविणासयरं सिद्धियरं कारणं परमं ।।८५।। एवं जिनै: कथितं श्रमणानां श्रावकाणांपुनः शृणुत। जिनवरकथित उपदेश यह तो कहा श्रमणों के लिए। अब सुनो सुखसिद्धिकर उपदेश श्रावक के लिए ।।८५।। सबसे प्रथम सम्यक्त्व निर्मल सर्व दोषों से रहित । कर्मक्षय के लिये श्रावक-श्राविका धारण करें।।८६।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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