SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 324
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्टपाहुड २८६ का चिंतन करते हैं, ध्यान में रत हैं, रक्त हैं, तत्पर हैं और जिनके भला - उत्तम चारित्र है, उनको मोक्षमार्ग में ग्रहण किये हैं । भावार्थ - जिनने मोक्षमार्ग प्राप्त किया ऐसे अरहंत सर्वज्ञ वीतराग देव और उनका अनुसरण करनेवाले बड़े मुनि दीक्षा शिक्षा देनेवाले गुरु इनकी भक्तियुक्त हो, संसार-देह-भोगों से विरक्त होकर मुनि हुए, वैसी ही जिनके वैराग्यभावना है, आत्मानुभवरूप शुद्ध उपयोगरूप एकाग्रतारूपी ध्यान में तत्पर हैं और जिनके व्रत, समिति, गुप्तिरूप निश्चय - व्यवहारात्मक सम्यक्त्वचरित्र होता है, वे ही मुनि मोक्षमार्गी हैं, अन्य भेषी मोक्षमार्गी नहीं हैं ।। ८२ ।। आगे ऐसा कहते हैं कि निश्चयनय से ध्यान इसप्रकार करना - णिच्छयणयस्स एवं अप्पा अप्पम्मि अप्पणे सुरदो । सो होदि हु सुचरित्तो जोई सो लहइ णिव्वाणं ।। ८३ ।। निश्चयनयस्य एवं आत्मा आत्मनि आत्मने सुरत: । सः भवति स्फुटं सुचरित्र : योगी सः लभते नवा ण म । । ८ ३ I ' अर्थ - आचार्य कहते हैं कि निश्चयनय का ऐसा अभिप्राय है जो आत्मा आत्मा ही में अपने ही लिये भलेप्रकार रत हो जावे वह योगी, ध्यानी, मुनि सम्यक्चारित्रवान् होता हुआ निर्वाण को पाता है। भावार्थ - निश्चयनय का स्वरूप ऐसा है कि एक द्रव्य की अवस्था जैसी हो उसी को कहे । आत्मा की दो अवस्थायें हैं - एक तो अज्ञान अवस्था और एक ज्ञान अवस्था। जबतक अज्ञान अवस्था रहती है तबतक तो बंधपर्याय को आत्मा जानता है कि मैं मनुष्य हूँ, मैं पशु हूँ, मैं क्रोधी हूँ, मैं मानी हूँ, मैं मायावी हूँ, मैं पुण्यवान् धनवान् हूँ, मैं निर्धन दरिद्री हूँ, मैं राजा हूँ, मैं रंक हूँ, मैं मुनि हूँ, मैं श्रावक हूँ इत्यादि पर्यायों में आपा मानता है, इन पर्यायों में लीन होता है तब मिथ्यादृष्टि है, अज्ञानी है, इसका फल संसार है उसको भोगता है। जब जिनमत के प्रसाद से जीव-अजीव पदार्थों का ज्ञान होता है तब स्व-पर का भेद जानक ज्ञानी होता है, तब इसप्रकार जानता है कि मैं शुद्धज्ञानदर्शनमयी चेतनास्वरूप हूँ, अन्य मेरा कुछ निजद्रव्यरत यह आतमा ही योगि चारित्रवंत है। यह ही बने परमातमा परमार्थनय का कथन यह ।।८३ ॥ ज्ञानदर्शनमय अवस्थित पुरुष के आकार में । ध्याते सदा जो योगि वे ही पापहर निर्द्वन्द हैं ।। ८४ ।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy